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________________ ५१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) दस अध्ययनों में दस कथानायकों के दुःखद फल यह है विपाकसूत्र के १0 कथानायकों को अपने द्वारा पूर्वकृत पापकर्मों के कारण प्राप्त अधिकांश दुःखद फल का लेखा-जोखा! इन कथानकों में पूर्वजन्म में किये हुए पापकर्मों का पूर्वजन्म में तथा अगले जन्म में दुःखद फल प्राप्ति का तथा वर्तमान जन्म में किये हुए पापकर्मों का दुःखद फल वर्तमान जन्म में ही तथा अगले जन्म या जन्मों में मिलने का सजीव वर्णन है। इससे यह निश्चित हो जाता है कि पापकर्मों का फल देर-सबेर से अवश्य फल मिलता है।' विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्धे सुखविपाक का संक्षिप्त परिचय विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का नाम सुखविपाक है। इसमें ऐसे पुण्यशाली पुरुषों का वर्णन किया गया है, जिन्होंने अपने जीवन में दान, शील, तप, भाव, दया, परोपकार, सेवा आदि सत्कर्म करके अनन्त पुण्यराशि से प्राप्त मनुष्य जन्म को सार्थक किया और आगामी जन्म के लिए पुण्योपार्जन करके आगामी भव को भी सुखमय बना लिया। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह दस अध्ययन हैं-(१) सुबाहुकुमार, (२) भद्रनन्दी, (३) सुजात, (४) सुवासव, (५) जिनदास, (६) धनपति, (७) महाबल, (८) भद्रनन्दी, (९) महच्चन्द्र, और (१०) वरदत्त। प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का वर्णन है। सुबाहुकुमार का पूर्वभव का जीवन जानने से उसके द्वारा पुण्यफल उपार्जन का पता लगता है, और भविष्य में उसका सुखद फल प्राप्त होता है। सुबाहुकुमार का पूर्वभव : दानशील सुमुख गाथापति के रूप में हस्तिनापुर में सुमुख नाम का धनाढ्य सद्गृहस्थ रहता था। एक बार नगर में जाति-कुल-सम्पन्न धर्मघोष स्थविर अनगार अपने ५00 श्रमणों के साथ पधारे। सहस्राम्रवन में विराजे। धर्मघोष स्थविर के एक शिष्य सुदत्त नामक अनगार थे। वे उदार तेजोलेश्या को अपने में संक्षिप्त (गुप्त) किये हुए थे। वे मासक्षमण (एक मास के उपवास का तपश्चरण) के पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय, द्वितीय पहर में ध्यान और तीसरे पहर में भिक्षाटन करने हेतु धर्मघोष स्थविर से पूछकर सुमुख गाथापति के यहाँ भिक्षार्थ पधारे। सुमुख गाथापति द्वारा सुदत्त अनगार को विधिपूर्वक आहारदान सुमुख गाथापति सुदत्त अनगार को आते हुए देखकर अत्यन्त हर्षित होकर आसन से उठा। पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा। पादुका छोड़कर एक साटिक १. देखें, विपाकसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध : सार संक्षेप (पं. रोशनलालजी) से पृ. ४ और १0 २. देखें, विपाक सूत्र, श्रु.२ अ. १ प्राथमिक पृ. ११६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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