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________________ कों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५१३ राजा वैश्रमणदत्त ने अपने पुत्र पुष्यनन्दी के लिए देवदत्ता की मांग की - यौवनवय में पदार्पण करते ही उसके शरीर का रूप, लावण्य के कारण निखर उठा। एक दिन देवदत्ता आभूषणों और श्रृंगार प्रसाधनों से सुसज्जित होकर बहुत-सी दासियों के साथ अपने प्रासाद की छत पर सोने की गेंद से खेल रही थी। इधर से वैश्रमणदत्त राजा भी सर्वालंकार विभूषित होकर अपने घोड़े पर बैठकर बहुत से पुरुषों को साथ लेकर अश्वक्रीड़ा (घुड़दौड़) में भाग लेने के लिए जा रहा था। रास्ते में उसकी नजर अपने प्रासाद की छत पर गेंद खेलती देवदत्ता कुमारी पर पड़ी। उसके रूप लावण्य को देखकर वैश्रमणदत्त नप विस्मित हो गया। फिर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर आदेश दिया कि इस कन्या के पिता-माता का पता लगाकर उनसे युवराज पुष्यनन्दी' के लिए याचना करो। अगर राज्य देकर भी उस कन्यारत्न को प्राप्त किया जा सके तो भी उचित है। वैश्रमणदत्त की ओर से पुष्यनन्दी के लिए देवदत्ता की माँग का प्रस्ताव __तदनन्तर वैश्रमणदत्त राजा के वे अन्तरंग पुरुष दत्त सार्थवाह के यहाँ पहुँचे। दत्त ने उनका स्वागत-सत्कार किया और आगमन का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने कहा-आपकी पुत्री देवदत्ता कुमारी की युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्या रूप से मंगनी करने आए हैं। यदि वरवधू का यह संयोग आपको अनुरूप जान पड़ता हो तो पुत्री देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए दीजिए और बतलाइए कि इसके लिए आपको क्या शुल्क उपहार के रूप में दिया जाए? दत्त सार्थवाह द्वारा सहर्ष स्वीकृति यह सुनकर दत्त सार्थवाह ने कहा-महाराज वैश्रमणदत्त अपने पुत्र के लिए मेरी कन्या को ग्रहण करके अनुगृहीत कर रहे हैं, यही मेरे लिए सबसे बड़ा शुल्क है। तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त के अन्तरंग पुरुष हर्षित होकर लौटे और राजा को यह खुशखबरी सुनाई। पुत्री देवदत्ता को पालकी में बिठाकर शोभायात्रा पूर्वक वैश्रमणनरेश को सौंपी इधर दत्त गाथापति ने शुभ मुहूर्त में अपने सभी स्वजनपरिजनों को प्रीतिभोज देकर उनके समक्ष अपनी पुत्री देवदत्ता को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर सहन पुरुषवाहिनी पालकी में बिठाकर गाजे बाजे के साथ रोहीतक नगर के बीचोबीच होकर वैश्रमण नरेश के पास पहुँचा। उन्हें बधाई दी और अपनी कन्या उन्हें समर्पित की। १. देखें, वही श्रु. १, अ. ८ में वर्णित देवदत्ता के पूर्वभव का तथा वर्तमान भव का वृत्तान्त, पृ. ९९ से १०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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