SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) अनेक प्राणियों के साथ वैर बांधे हुए, अविश्वसनीय, दम्भपूर्ण, शठता-धूर्तता में अतिनिपुण, अपयशकामी, बसप्राणियों के घातक तथा भोगों के दलदल में फंसे हुए प्राणी मर कर रल-प्रभादि नरक भूमियों को लांघकर नीचे के नरकतल में जाकर उत्पन्न होते हैं। ........वे नारकीय जीव वहाँ कठोर, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, प्रचण्ड, दुर्गम्य, दुःखद, तीव्र दुःसह वेदना भोगते हुए अपना समय (आयुष्य) व्यतीत करते हैं। वे गुरुकर्मा पापिष्ठ पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को प्राप्त करते हैं। वे दक्षिणगामी नैरयिक कृष्णपाक्षिक तथा भविष्य में दुर्लभबोधि होते हैं। निम्नतम नरक भूमियों में उनकी धृति, मति, निद्रा, श्रुति, रति, बोधि आदि लुप्त हो जाती है। उनका समग्र दीर्घ जीवन घोर यातनाओं और असह्य वेदनाओं में ही व्यतीत होता है।' द्वितीय धर्मपक्षीय स्थानः अधिकारी और उनके गुण द्वितीय स्थान धर्मपक्ष का है। इसके अधिकारी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो आरम्भ-परिग्रह से विरत होते हैं, धार्मिक और धर्मानुसार प्रवृत्ति परायण होते हैं, धर्म की ही अनुज्ञा देते हैं, धर्म को अपना अभीष्ट मानते हैं, धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्मजीवी, धर्मदर्शी, धर्मानुरक्त, धर्मशील एवं धर्माचरण परायण होते हैं, और धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवन-यापन करते हैं। वे सुशील, सुव्रती, सदानन्दी, उत्तम पुरुष होते हैं। प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन तक अठारह ही पापों से वे विरत होते हैं। स्नान-शृंगार-विभूषा से दूर रहते हैं, हाथी घोड़ा आदि वाहनों से विरत होते हैं, क्रय-विक्रय, पचन-पाचन, आरम्भ-समारम्भ आदि सावद्यकर्मों से आजीवन निवृत्त रहते हैं। स्वर्णरजत आदि तथा धन-धान्यादि परिग्रह से आजीवन निवृत्त रहते हैं। तथा परपीडाकारी समस्त सावध अनार्यकर्मों से यावज्जीवन दूर रहते ऐसे धार्मिक पुरुष प्रायः अनगार होते हैं, जो पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीनगुप्ति जितेन्द्रिय, ब्रह्मचर्य गुप्तियों के पालक, क्रोधादि कषायों के विजेता आदि अनेक गुणों से युक्त होते हैं। संक्षेप में वे तप-संयम से युक्त होते हैं। धर्मपक्षीय स्थान के अधिकारियों को उनके प्रशस्त पुण्यकर्मों का प्राप्त होने वाला ऐसे महान् पुरुषों के लक्षणों का सूत्रकृतांग में विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसे कई पहान् आत्मा एक ही भव (जन्म) में संसार का अन्त (मोक्ष प्राप्त) कर लेते हैं। कई १. देखें, सूत्रकतांग, श्रु.२, अ. २, सू. ७१0, पृ.७९ से ८३ तक (आगम प्रकाशन समिति,व्यावर) २. देखें, सूत्रकृतांग श्रु. २, अ. २ सू.७११, पृ. ८४-८५ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy