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________________ पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ४५७ तात्पर्य यह है कि इन दो भंगों में कोई विचारणीय बात नहीं है। लेकिन इस चतुर्भगी का दूसरा और तीसरा भंग बहुत ही महत्त्वपूर्ण और मननीय है-जिज्ञासुओं, मुमुक्षुओं और आत्मार्थियों के लिए। जब तक इस चतुर्भगी को हृदयंगम नहीं किया जाएगा, तब तक कर्मफल के विषय में स्पष्ट दर्शन नहीं हो सकेगा। पूर्वोक्त चतुर्भगी का फलितार्थ, निष्कर्ष और रहस्य - प्रस्तुत चतुभंगी का फलितार्थ रूप इस प्रकार है-(१) पुण्य और उसका फल पुण्य, (२) पाप और उसका फल पाप; (३) पुण्य और उसका फल पाप, और (४) पाप और उसका फल पुण्य। __इसमें तीसरा और चौथा विकल्प कर्मविज्ञान के अनुसार जाति-परिवर्तन का घोतक है। जिस प्रकार आजकल नस्ल बदल दी जाती है, उसी प्रकार ये दो विकल्प कर्म-परमाणुओं की जाति-परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। स्वकीय पुरुषार्थ से शुभ या अशुभ कर्म-परमाणुओं की जाति बदली जा सकती है, बशर्ते कि वह कर्मबन्ध निकाचितरूप में न हुआ हो, तथा उदय में न आया हो। जैसे-बन्धकाल में एक प्रकार के कर्मपरमाणु बंधे, किन्तु बाद में ऐसा शुभ या अशुभ पुरुषार्थ हुआ, जिससे उन पूर्वबद्ध कर्मपरमाणुओं का जात्यन्तर हो गया। जो परमाणु पुण्य के थे, वे पापफलदायक परमाणु बन गए; तथैव जो परमाणु पाप के थे, वे पुण्य-फलदायक परमाणु बन गए। निष्कर्ष यह है कि एक विकल्प में परमाणुओं का संचय हुआ पुण्यरूप में, किन्तु उसका परिणाम निष्पन्न हुआ पाप के रूप में । दूसरे विकल्प में-परमाणुओं का संचय हुआ पापरूप में, किन्तु उसका परिणाम निष्पन्न हुआ पुण्य के रूप में। स्पष्ट शब्दों में कहें तो-पहले पुण्य का बन्ध हुआ, उस बन्ध में समग्र परमाणुसंचय पुण्य से जुड़ा हुआ है; किन्तु बाद में कोई हिंसा, चोरी आदि का कुपुरुषार्थ हुआ कि उस पूर्व कर्म परमाणुपुंज की जाति का समूल परिवर्तन हो गया। इसी प्रकार पहले पाप का बन्धं हुआ, उस बन्ध में समग्र परमाणु संचय पाप से जुड़ा हुआ है, किन्तु बाद में ऐसा कोई बाह्याभ्यन्तर या साधना आदि का सत्पुरुषार्थ हुआ कि उस पूर्व-कर्मपरमाणुपुंज की जाति का समूल परिवर्तन हो गया। पूर्वोक्त चतुर्भगी का फलितार्थ . पूर्वोक्त चतुर्भगी का फलितार्थ यह है (१) शुभ और शुभ विपाक-कोई कर्म शुभ होता है, उसका विपाक भी शुभ होता है। अर्थात्-कोई जीव सातावेदनीयादि शुभ कर्म (पुण्य) का बंध करता है और उसका विपाक रूप शुभ फल (सुख) भोगता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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