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________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४४५ अतः पुण्य और पाप की तथा उनके फलों की व्याख्या आगमों और आध्यात्मिक ग्रन्थों में आध्यात्मिक एवं लोकोत्तर दृष्टि से की गई है। पुण्यकर्म का उपदेश क्या इसलिए दिया गया है कि मनुष्य इस जीवन में उसे हेय समझकर बाह्य और अन्तरंग परिग्रह का तथा भोगोपभोग के साधनों का आंशिक या सर्वथा त्याग करे, और अगले जन्म में उसके फलस्वरूप उन्हें वह प्रचुर मात्रा में प्राप्त करे और अनन्तसंसार का पात्र बने। पुण्य कर्म की इससे बढ़कर विडम्बना और क्या हो सकती है? अपितु पुण्य-प्रभाव से जिन पर-पदार्थों को हेय जानकर तथा भेदविज्ञान जगाकर उनके प्रति ममत्व, वासना या कामना का त्याग करता है, कर्मक्षय करके या अशुभ रागादि या कषायादि भावों का त्याग करके क्रमशः आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त करता है। फलतः वह या तो कर्मबन्धन के कारणों का आंशिक या सर्वथा त्याग करता है; या फिर समग्ररूप से भव बन्धन को काटने में समर्थ होता है। यह पुण्यकर्म की लोकोत्तर व्यवस्था है।' पुण्यकर्म का फल भौतिक लाभ ही है या आत्मिक लाभ भी? कुछ एकान्त निश्चयनयवादियों का कहना है कि जैसे पाप कर्म से भौतिक हानि प्राप्त होती है, वैसे ही पुण्यकर्म से केवल भौतिक लाभ ही होता है, उससे आत्मिक लाभ तो कुछ नहीं होता, इसलिए पुण्यकर्म को तो सर्वथा त्याज्य समझना चाहिए, पुण्यकर्म नहीं करना चाहिए। इसका समाधान यह है कि वास्तव में शुभगति, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, सर्वांगपूर्णता, दीर्घायुष्कता, धर्मश्रवण, धर्म प्राप्ति आदि सब भौतिक लाभ शुभनामकर्म, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और शुभ आयुष्य कर्म आदि पुण्य कर्म से प्राप्त होते हैं; किन्तु धर्म और अध्यात्म की साधना, संवर-निर्जरारूप धर्म की या दशविध उत्तम क्षमादि धर्म की साधना करने के लिए भी मनुष्य जन्म आदि की अनिवार्य आवश्यकता होती है। मनुष्य भव के बिना सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की, सर्व-कर्मक्षय की, मोक्ष की साधना हो ही नहीं सकती। इसीलिए वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरम्न संस्थान की आवश्यकता शीघ्र मोक्षगमन के लिए बताई है। पापोदय से प्राप्त एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय आदि दशाओं में तो जीव धर्म का आचरण करना तो दूर, धर्म का स्वरूप ही नहीं समझ सकता। पुण्यकर्म के उदय से उत्तम साधन मिलने पर ही रलत्रयरूप धर्म, अध्यात्म एवं कर्मक्षय की साधना में गति-प्रगति हो सकती है। .. माता मरुदेवी, संयती राजर्षि, प्रदेशी राजा, हरिकेशबल, भृगुपुत्र आदि को पूर्वकृत पुण्य के फलस्वरूप ही धर्मश्रवण, धर्माचरण, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं १. वही, प्रस्तावना-कर्ममीमांसा से, पृ. २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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