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________________ २६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता ( ४ ) ५ अर्थभक्त रुपयों के हानि-लाभ पर ही दृष्टि रखता है, जबकि कर्मविज्ञान में पारंगत आत्मवान् व्यक्ति आत्मस्वरूप को आवृत करने वाले आस्रव को हेय तथा बन्ध को हानिकारक एवं संवर - निर्जरा को मोक्षरूपी धन का लाभकर्ता समझता है। कर्मविज्ञान इसी आत्मिक हानि-लाभ की बात विविध पहलुओं से बताता है। कर्मविज्ञान से आध्यात्मिक उपलब्धि समयसार नाटक में कविवर बनारसीदास जी ने कर्मविज्ञान मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुषों की कर्मविज्ञान से आध्यात्मिक उपलब्धि की प्रक्रिया का निरूपण करते हुए कहा है जे जे जगवासी जीव थावर-जंगमरूप, ते ते निज बस करि राखे बल तोरि के। महा अभिमानी ऐसो आम्रव अगाध जोधा, रोपि रणथम्भ ठाडो भयो मूंछ मोरिके ॥ आयो तिहि थानक अचानक परमधाम, ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फोरि के । आम्रव पछार्यो रणथम्भ तोड़ि डार्यो, ताहि निरखि बनारसी नमत कर जोरि के ॥' वस्तुतः कर्मविज्ञान अभिमानी आस्रव सुभट को पछाड़कर विजय प्राप्त करने वाले आत्मज्ञानी को महान् बल प्रदान करता है। वह बताता है कि कर्मों का आत्मा के साथ जो बन्ध है, वह इतना दुर्भेद्य, सुदृढ़ और सूक्ष्म है कि भयंकर से भयंकर शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रादि के प्रहार का उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु अध्यात्म-शक्तियाँ जाग्रत होते ही रागद्वेष - मोहादि कषायजनित कर्मों का गाढ़ बन्धन शिथिल होने लगता है। कर्मों के प्रपंच से छूटने का कर्मविज्ञान द्वारा प्रेरित उपाय ही * सच्चे माने में सब से बड़ा लाभ और चमत्कार है। संसार के समस्त भौतिक चमत्कार और आविष्कार को तराजू के एक पलड़े पर रखा जाए और दूसरी ओर दूसरे पलड़े पर कर्मक्षय एवं कर्मनिरोध करने की आत्मचातुरी अथवा आध्यात्मिक शक्ति के चमत्कार को रखा जाए तो वह आत्मस्वरूपोपलब्धि का पलड़ा ही भारी रहेगा। अनन्त - अनन्त जन्मों से बंधे हुए अनन्त दुःखों के मूल कारण कर्मों का पूर्णतया उन्मूलन करके आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आत्मिकसुख और अनन्त आत्मशक्ति (वीर्य) को अभिव्यक्त करने की कला कर्मविज्ञान से ही प्राप्त होती है। 9. समयसार नाटक (कविवर बनारसीदास जी ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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