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- ४१६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
फल कौन-कौन से हैं ? उत्तर दिया गया है- "तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।"
पुण्य का महिमागान करते हुए 'कुरल काव्य' में कहा गया है- "धर्म से मनुष्य को स्वर्गप्रद पुण्य प्राप्त होता है, तथा अन्त में सुदुर्लभ निर्वाण की भी प्राप्ति होती है । फिर भला मनुष्यों के लिए धर्म से बढ़कर लाभदायक कौन-सी वस्तु है ? धर्म (पुण्य) से बढ़कर देहधारियों के लिए कोई सुकृति नहीं है और उसको छोड़ देने से बढ़कर कोई दुष्कृति ( बुराई ) नहीं है । "
महापुराण में कहा गया है- “पुण्य के बिना चक्रवर्ती आदि के समान अनुपम रूप, सम्पदा, अभेद्य शरीर का गठन, अतिशय उत्कट निधि, रत्नऋद्धि, हाथी, घोड़े आदि का परिवार तथा अन्तःपुर का वैभव, भोगोपभोग, द्वीप समुद्रों पर आधिपत्य एवं ऐश्वर्य आदि सब कैसे प्राप्त हो सकते हैं ?"
पुण्य की महिमा और सुफलता
आगारधर्मामृत में कहा गया है - "यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेष्ट प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु यदि वह पुण्य नहीं है तो स्वयं को कष्ट देने पर भी वह बिलकुल प्राप्त नहीं हो सकता।"
अनगारधर्मामृत में भी कहा गया है- "पुण्य यदि उदय के सम्मुख है तो दूसरे उपाय करने से क्या प्रयोजन है और यदि वह सम्मुख नहीं है, तो भी तुम्हें दूसरे सुख के उपाय करने से भी क्या प्रयोजन है ?"
परमानन्द पंचविंशति में पुण्य की महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है - "पुण्य के प्रभाव से कोई अन्धा प्राणी भी निर्मल नेत्रधारक हो जाता है; वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो
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(क) (प्र.) "काणि युण्णफाणि ?
(उ. ) तित्थयर - गणहर - रिसि-चक्कवट्टी - बलदेव - वासुदेव सुर- विज्जाहर - रिद्धीओ।"
-धवला १/११२/१०५
(ख) धर्मात्साधुतरः कोऽन्यो, यतोविन्दन्ति मानवाः । पुण्यं स्वर्गपदं नित्यं निर्वाणं च सुदुर्लभम् ॥१ ॥ धर्मान्नास्त्यपरा काचित् सुकृतिर्देहधारिणाम् । तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिर्देहधारिणाम् ॥२॥ (ग) पुण्याद् विना कुतस्तादृग् रूपसम्पदनैदृशी ।
पुण्याद् विना कुतस्तादृङ् निधि - रत्नर्द्धिरूर्जिता ? पुण्याद् विना कुतस्तादृग् इभाश्वादिपरिच्छदः । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् अभेद्य - गात्रबन्धनम् ?
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-कुरलकाव्य ४/१-२
-महापुराण ३७/१९१-१९९
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