SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३९९ विपाक उसी रूप में अनिवार्य नहीं होता। उनके विपाक के स्वरूप, मात्रा, कालावधि, एवं तीव्रता आदि में परिवर्तन किया जा सकता है। वस्तुतः कर्मों के अर्जन के पीछे रही हुई कषायों की तीव्रता-मन्दता के आधार पर ही क्रमशः नियतविपाकी और अनियतविपाकी कर्मों का बन्ध होता है। तीव्र कषाय के कारण हुए तीव्र एवं प्रगाढ़ बन्ध वाले कर्मों का विपाक नियत होता है, अल्पकषाय वाले कर्मों का बन्ध भी शिथिल होता है और विपाक भी अनियत। बौद्धदर्शन में भी नियतविपाकी और अनियतविपाकी दोनों प्रकार के कर्म माने हैं। जिन कर्मों का फलभोग तथा प्रतिसंवेदन अनिवार्य हो, वह नियतविपाकी हैं तथा जिनका फलभोग एवं प्रतिसंवेदन अनिवार्य न हो, वे कर्म अनियतविपाकी हैं। नियतविपाक के चार भेद हैं-(१) दृष्ट धर्म वेदनीय (इसी जन्म में अनिवार्य फल देनेवाला), (२) उपपद्यवेदनीय (उपपन्न होकर अनन्तर जन्म में अनिवार्य फल देने वाला), (३) अपरापर्य वेदनीय (विलम्ब से अनिवार्य फल प्रदाता कर्म), (४) अनियत वेदनीय (स्वभाव बदला जा सकता है, किन्तु फल भोगना अनिवार्य है)। इसके विपरीत अनियत विपाक कर्म के भी चार भेद इन्हीं रूपों वाले हैं। किन्तु चारों में फलभोग आवश्यक नहीं हैं। वैदिक परम्परा में भी कर्मविपाक की नियतता और अनियतता दोनों मानी गई हैं। 'ज्ञानाग्नि सभी कर्मों को नष्ट कर देती है' गीता का यह वाक्य कर्मों के विपाक की अनियतता को सूचित करत है। इसी प्रकार 'प्रारब्ध कर्मों का भोग अनिवार्य है, इस वाक्य द्वारा कर्मविपाक की नियतता स्वीकृत की गई है। कर्मविपाक में उपादान की अपेक्षा निमित्त का महत्व अधिक जैनदर्शन में निमित्त और उपादान दोनों को महत्त्व दिया गया है। दोनों ही अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। विपाक (कर्मफल) के सम्बन्ध में उपादान की अपेक्षा निमित्तों का अधिक महत्त्व है। प्रज्ञापनासूत्र में विपाक के निमित्तों का विशेष निरूपण किया है। प्रत्येक कर्म के विपाक में वहाँ गति, स्थिति, भव, पुद्गल और - पुद्गल-परिणाम, ये ५ मुख्य निमित्त बताए गए हैं, जिनका विश्लेषण हम पूर्वपृष्ठों में कर आए हैं। ... जैनकर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने कर्मविपाक के लिए पांच मुख्य निमित्त बताए हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव। इन पांच निमित्तों-आलम्बनों के आधार पर कर्मविपाक का १. ये ही दोनों क्रमशः पृ. ३२२, ३२३ तथा ७९ २. 'ज्ञानाग्निः सद्यकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन! -भगवद्गीता ४/३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy