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________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३७७ विभिन्न उत्तर (अंगोपांग) प्रकृतियों के रूप में होते हैं। इनमें से कई कर्म सुखद और कई दुःखद फल देते हैं। कई कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को, कई दर्शनगुण को आवृत कर देते हैं, कई कर्म आत्मा के चारित्र और तप रूप गुण को कुण्ठित और विकृत कर देते हैं। कई कर्म किसी क्षेत्र से प्रभावित होकर अपना फल देते हैं, कई काल के नियमानुसार तथा कई कर्म कर्ता के तीव्र-मन्द रागादि भावों के अनुसार फल प्रदान करते हैं। कर्म-फल की यह पृथक्ता, विविधता एवं विचित्रता राग-द्वेषादि या क्रोधादि कषायों के तीव्र-मन्द भावों के अनुसार विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों के अनुसार, तथा विभिन्न प्रकार की बन्ध-स्थिति (कालसीमा) के अनुसार तथा विभिन्न प्रकार की प्रकृति के नियमों को लेकर है। वनस्पतिजगत् में जैसे फलित होने के विभिन्न नियम हैं, वैसे ही कर्मजगत् में भी फलित होने के पृथक्-पृथक् नियम हैं। जैनकर्म-विज्ञानमर्मज्ञों ने कर्मफल के इन विभिन्न नियमों का प्रतिपादन विभिन्न आगमों और ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। कर्मफल के इन विविध नियमों का परिज्ञान होना आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मार्थी साधक के लिए अतीव आवश्यक है। विभिन्न नियमों के आधार पर विविध कर्मों के विचित्र फलों का निरूपण "जैनकर्म-विज्ञान-मर्मज्ञों ने कर्मकर्ता के तीव्र-मन्द रागादि परिणाम (भाव), कर्म . करने के क्षेत्र, कर्मों की प्रकृति तथा कर्मों के परिपक्व होने के काल (स्थिति) एवं कर्मों के परिमाण (मात्रा या संख्या) के नियमों के अनुसार विभिन्न किस्म के कर्मों के पृथक्-पृथक् विचित्र फल निर्धारित किये हैं। उन जैन कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने कर्म के फल के विषय में मनोविज्ञान, अध्यात्मविज्ञान, योगविज्ञान आदि समस्त विज्ञानों के परिप्रेक्ष्य में गहराई से चिन्तन-मनन करके कुछ नियमसूत्र प्रस्तुत किये हैं। यद्यपि भारतीय धर्मों और दर्शनों ने कर्म और कर्मफल तक अपना-अपना चिन्तन प्रकट किया है । परन्तु जितना गहराई से, प्रत्येक पहलू से, · विभिन्न दृष्टिकोणों से जैन कर्म-विज्ञान ने मन्तव्य प्रकट किया है, उतना अन्य दर्शनों और धर्मों की परम्परा में नहीं मिलता। यह तथ्य हमने पिछले पृष्ठों में स्पष्टतापूर्वक युक्ति, सूक्ति और अनुभूति के आधार पर प्रकट किया है। कर्मफल का नियन्ता ईश्वर नहीं, स्वयं कर्मफल नियम अन्य धर्म और दर्शन को मानने वाले लोग जहाँ ईश्वर को कर्मफल का नियन्ता मानकर निश्चिन्त हो जाते हैं, ईश्वर के हाथों में कर्मफल सौंप देते हैं, वहाँ जैनदर्शन कर्मफल नियम के हाथों में सौंपता है। ईश्वर को कर्मफल का नियन्ता मानने वाला तो यह कहकर छुट्टी पा लेता है कि परमात्मा की ऐसी इच्छा थी, अतः ऐसा हो गया । किन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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