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________________ ३६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) अशुभ कार्यों के करने से तथा तदनुकूल क्रूर और कठोर अन्तःकरण की वृत्ति होने से जिन कर्मों में नीम, कांजीर, विष और हलाहल के समान कटु फलदानशक्ति उपलब्ध होती है, उनकी पापकर्म संज्ञा है।' घाती और अघाती के भेद से कर्मों की विविध स्तर की फलदानशक्ति इसके अतिरिक्त कर्मों की फलदानशक्ति घाती और अघाती के भेद से दो प्रकार की बताई गई है। घातीरूप फलदानशक्ति तीव्र-मन्द आदि स्तर की अपेक्षा से चार प्रकार की है-लता, दारू (लकड़ी), अस्थि (हड्डी) और शैल (पर्वत)। अनुभाग शक्ति की उत्तरोत्तर कठोरता सूचित करने हेतु लता आदि चारों की उपमा देकर फल के मन्द-तीव्र स्तर बताए गए हैं। इस प्रकार की फलदानशक्ति से युक्त सभी कर्म (घाती कर्म) पापरूप ही होते हैं। किन्तु अघातिरूप कर्मों की फलदानशक्ति पाप और पुण्य के भेद से दो प्रकार की होती है। वह भी प्रत्येक अनुभाग शक्ति की उत्तरोत्तर तीव्रता सूचित करने हेतु पूर्ववत् चार-चार प्रकार की होती है। तात्पर्य यह है, संसारस्थ प्रत्येक जीव (आत्मा) में दो प्रकार के गुण होते हैंअनुजीवी और प्रतिजीवी। जो गुण केवल जीव (आत्मा) में होते हैं, वे जीव के अनुजीवी गुण हैं और जो गुण जीव के सिवा अन्य द्रव्यों मे भी उपलब्ध होते हैं, वे उसके प्रतिजीवी गुण हैं। कर्मों का घाती और अघाती इन दो भेदों में वर्गीकृत करने का कारण मुख्यतया ये दो प्रकार के गुण हैं। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये जीव (आत्मा) के अनुजीवी गुण हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय; ये चार घातिकर्म इन गुणों को आवृत, कुण्ठित, ह्रास युक्त और शक्तिहीन बना देते हैं। इसी कारण इनकी घाति संज्ञा है। इनके अतिरिक्त शेष कर्मों की अघातिसंज्ञा है।' पूर्वोक्त आठ कर्मों में से अमुक-अमुक कर्म से बाईस परीषहों में से अमुक-अमुक परीषह (धर्मपालन में दृढ़ रहने के लिए आने वाले कष्ट) भी आते हैं। इन परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने से कर्म-निर्जरा होती है। परन्तु परीषह सहन न करने के कारण तथा परीषहों के उपस्थित होने पर विषमभाव आने पर नये कर्म बन्ध जाते हैं, पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय नहीं होता। इस दृष्टि से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध होने पर कौन-कौन से परीषह फलरूप में आते हैं ? इसका संक्षेप में निरूपण तत्त्वार्थ सूत्र के नौवें अध्याय में किया गया है। वहाँ बताया गया है कि ज्ञानावरणरूप निमित्त कारण से प्रज्ञा १. वही (प्रस्तावना) से पृ. २० २. वही, (प्रस्तावना) से पृ. २०-२१ ।। ३. महाबंधो भा. २ (प्रस्तावना) से पृ. २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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