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३६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
दानान्तराय आदि कर्मों का अनुभाव (फल) है। दानान्तराय कर्म के उदय से किसी उत्तम पुद्गल या पुद्गलों के अभाव से जो वेदन होता है। वह दानान्तराय कर्म का अनुभाव (फलविपाक) है। सेंध आदि लगाने के उपकरणों या चोरी, लूट आदि के उपकरण आदि से लाभान्तराय कर्म का उदय होता है। विशेष प्रकार के अभक्ष्य या कुपथ आहार या अग्राह्य अभोज्य पदार्थ के ग्रहण-सेवन से लोभ के कारण भोगान्तराय कर्म का उदय होता है। इसी प्रकार उपभोगान्तराय कर्म का उदय भी समझ लेना चाहिए। लाठी, शस्त्र दुर्घटना आदि की चोट से वीर्यान्तराय कर्म का उदय होता है। अथवा जिस पुद्गल परिणाम का अर्थात्-कुपथ्य या गरिष्ठ या विशिष्ट आहार या औषधि आदि वे परिणमन से भी वीर्यान्तराय कर्म का उदय होता है।
इस पंचविध अन्तराय कर्म के उदय से जीव दान आदि में अन्तराय का वेदन करता है, यही इस कर्म का फलविपाक (अनुभाव) है। यह भी स्वतः परतः कर्मोदय के कारण होता है। जैसे-परतः दानान्तरायकर्म का अनुभाव (फल भोग) तब होता है, जो कोई किसी को वस्त्र देना चाहता है, मगर ग्रीष्मऋतु या शीतऋतु आदि का आवागमन होने से दान नहीं कर पाता; अदाता बन जाता है। यह परतः दानान्तरायकर्मोदयजनित फलविपाक है। स्वतः दानान्तराय कर्म का अनुभाव तब होता है, जब व्यक्ति किसी से दान के रूप में कुछ पाना चाहता है, किन्तु दानान्तरायकर्मवशात् प्राप्त कहीं कर पाता। यह स्वतः दानान्तराय कर्मोदयजनित फल विपाक है। इसी प्रकार शेष चारों अन्तरायों के अनुभाव के विषय में समझ लेना चाहिए।'
यह अष्टविध कर्मों का फलविपाक (अनुभाव) तभी होता है, जब वह कर्म बंध से लेकर उदय तक की प्रक्रिया तक पहुँच गया हो। किसी भी कर्म को बांधे बिना तथा उसके उदय में आए बिना उसका फल नहीं मिलता, न ही तथाकथित फलभोग होता है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि ये सभी अनुभाव बांधे हुए आठ प्रकार के कर्मों के प्रतिफल हैं, किन्तु उस जीव की गति, स्थिति, भव, पुद्गल और पुद्गल-परिणाम को लेकर भी उनके फलभोग में न्यूनाधिकता, या तरतमता हो जाती है। ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के बन्ध के कारणों पर आगामी बन्ध खण्ड में प्रकाश डाला जाएगा । फलविपाक की दृष्टि से कर्मों की विचित्रता : कर्मफल की विभिन्नता का आधार
इसी प्रकार इन पूर्वोक्त आठों ही कर्मों के फलविपाक में गति, स्थिति, भव,
१. (क) प्रज्ञापना सूत्र खण्ड ३, पद २३ के सूत्र १६८६/१-२ का मूलपाठ, अनुवाद और विवेचन,
पृ. १९, २६ (ख) जैन तत्त्व कलिका, कलिका ६ (आचार्य श्री आत्माराम जी) से पृ. १७८ २. देखें, प्रज्ञापना सूत्र खण्ड ३ पद २३ के सूत्र १६७९ का मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन, पृ.
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