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________________ ३४४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) संक्रमण -करणों के माध्यम से शीघ्र ही भोग लेते हैं, उन्हें कर्म-फल पुनः भोगने की आवश्यकता नहीं होती। वे कर्मवृक्ष से कर्मों को पृथक् कर देते हैं। इतना ही नहीं, जैनकर्म विज्ञान उन कर्मों का वर्गीकरण उनके स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार करता है, उन कर्मों के करने में तीव्र-मन्द रस के अनुसार उनकी स्थिति का निर्धारण भी करता है, उनकी सत्ता (संचित ) में रहने की भी सामान्य रूप से अवधि बताता है। कर्म फलभोग़ के समय अगणित फल वाले वृक्ष के रूप में कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह फलित होता है कि कर्म एक प्रकार से फलभोग की तैयारी है। दूसरे शब्दों में कहें तो - "कर्म फलभोग का प्रारम्भिक बीज है । फिर वही कर्मबीज फलभोग के समय वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। जिसके अगणित फल लगते . हैं, वे पकने पर झड़ जाते हैं फिर नये फल आते हैं, और यथासमय झड़ते जाते हैं। कई लोग उदीरणा द्वारा, निर्जरा या संक्रमण द्वारा समय से पहले पका कर फलोपभोग कर लेते हैं।" कर्म-महावृक्ष के असंख्य पत्र - पुष्प - फलों की गणना करना अशक्य : क्यों और कैसे ? इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि कर्मरूपी महावृक्ष के असंख्य पत्र, पुष्प हैं और अनन्त फल हैं। जिस प्रकार किसी फलदार वृक्ष के पत्र, पुष्प और फल की गिनती सामान्य मानव के द्वारा नहीं की जा सकती, उसी प्रकार कर्मरूपी महावृक्ष के पत्रों, पुष्पों और फलों की गणना करना छद्मस्थ अथवा अल्पज्ञ के लिए कठिन है। क्योंकि कर्म विज्ञान के अनुसार पहले तो कर्म की मुख्य-मुख्य मूल प्रकृतियों के अनुसार आठ भेद हैं, फिर उनकी उत्तर - प्रकृतियों की संख्या १४८ अथवा १५८ है । फिर उनके एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में भी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन कुल ५६३ प्रकार के जीवों की अपेक्षा से, तथा उनके भी चतुर्दश गुणस्थानों की अपेक्षा से, और फिर गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञानअज्ञान, भव्य, अभव्य, संज्ञी- असंज्ञी, आहार, संयम, दर्शन, लेश्या आदि मार्गणा द्वारों की अपेक्षा से गणना करने पर कर्म के हजारों प्रकार हो जाते हैं। तत्पश्चात् यदि हजारों कर्म-प्रकारों के प्रत्येक जीव के प्रतिक्षण की बन्ध, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशमन, निधत्ति और निकाचना, इन दश अवस्थाओं के तीव्र, मन्द अध्यवसायों (भावों) की दृष्टि से कर्मपर्यायों की गणना करने लगें, एक-एक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के असंख्य पर्यायों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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