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२६४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
बीमार पेट में दवा लेता है, किन्तु वह दवा जहाँ बीमारी है, वही पहुँचकर उस बीमारी को मिटाने का काम करती है। मस्तक में दर्द है तो वह दवा वहीं पहुँच कर उस दर्द को मिटा देती है। पेट दुखता है तो वह दवा पेट में ही पहुँचकर उसकी पीड़ा को शान्त कर देती है। प्रश्न होता है, ज्ञानशून्य दवा को क्या पता है, अमुक जगह रोग है, उसे मुझे मिटाना है ? कौन उसे वहाँ पहुँचाता है और रोग मिटाता है ? पेट में दर्द है तो वह दवा आँख में क्यों नहीं पहुँचती ? कोई ईश्वर उस रोग को नहीं मिटाता, न ही अन्य कोई शरीर में जाकर क्रिया करता है ? इसका समुचित समाधान यह है कि शरीर में जो जीव द्वारा आत पुद्गल हैं, उनमें ऐसी स्वाभाविक शक्ति और आकर्षण व्यवस्था है कि शरीर के जिस अंग में, जिस तत्त्व की कमी है, उसे दवा के परमाणु पुद्गल जीव के द्वारा पेट में डालते ही वह उस दिशा में स्वतः आकृष्ट होकर चले जाते हैं और उस तत्त्व की पहले पूर्ति कर देते हैं। शरीर में प्रोटीन की कमी है तो आहार में लिया हुआ प्रोटीन उन्हीं अंगोपांगों या सैलों की ओर खिंच जाता है।
कर्मपुद्गल भी आकृष्ट होकर आने के पश्चात् स्वतः कार्य करते हैं
यही तथ्य कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध में समझिए । कर्म पुद्गलों का ग्रहण करना भी एक प्रकार का आहार है। व्यक्ति की शारीरिक-मानसिक चंचलता के कारण कर्मपुद्गल आकृष्ट होते हैं। कर्मपुद्गल आकर उसके आत्मप्रदेशों के साथ चिपक जाते हैं। मिल जाते हैं। फिर उन कर्मपुद्गलों का स्वभाव के अनुसार विभाजन या वर्गीकरण होता है। कर्म जीव के साथ मिलते ही अपना कार्य शुरू कर देते हैं । कर्ता के कषायों तथा रागद्वेष परिणामों के अनुसार उनकी फल भुगवाने की कालसीमा निर्धारित होती है। जिस प्रकार कर्मपरमाणु गृहीत होते हैं, वे अपने सजातीय परमाणुओं द्वारा आकर्षित किये जाते हैं। फिर वे उसी दिशा में सक्रिय होकर अपना काम करना शुरू कर देते हैं। उनमें फल देने की शक्ति स्वतः पैदा हो जाती है। जीव के द्वारा कर्म परमाणुओं के आकृष्ट होते ही उनमें एक विशिष्ट क्षमता पैदा हो जाती है। उसे जैनकर्मविज्ञान की भाषा में कहते हैं - अनुभाग बन्ध ( रसानुभाव), उसी का फलितार्थ है - कर्म की फलप्रदान शक्ति या क्षमता। उसके लिए ईश्वर को कर्मफल का नियंता मानने की जरूरत नहीं ।
कर्मों की फलदान शक्ति में तरतमता क्यों?
जिस प्रकार संसार के सभी परमाणुओं में एक सरीखी क्षमता या शक्ति नहीं होती, उसमें भी विभिन्न प्रकार की तरतमता होती है, उसी प्रकार कर्मों में या एक ही प्रकार के कर्म में सदा एक सरीखी शक्ति निर्मित नहीं होती । कर्म परमाणुओं की संरचना के कारण तथा व्यक्ति की रागादि परिणामों की तीव्रता - मन्दता के आधार पर कर्मों की फल दान शक्ति में तरतमता होती है।
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