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________________ २५४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) . सकता। वही संसार का सर्वेसर्वा है। परमात्मा पापियों का नाश करने तथा धार्मिक लोगों का उद्धार व परित्राण करने के लिए कभी न कभी किसी न किसी रूप में संसार में अवतरित होता है, युग-युग में जन्म लेता है। वह वैकुण्ठ धाम से या विष्णु लोक से नीचे उतरता है अथवा मनुष्य, पशु आदि के रूप में जन्म ग्रहण करता है और अपनी लीला दिखाकर वापस वैकुण्ठ धाम में जा विराजता है। वह सदैव पूजनीय, नमस्करणीय और संस्मरणीय है। यह परमपिता परमात्मा का एक रूप है। परमात्मा के इस रूप को सनातनधर्मी मानते हैं। इसमें मनुष्यों के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का कोई मूल्य नहीं है, जो कुछ है वह सब परमपिता पर ही निर्भर है। द्वितीय रूप-परमात्मा एक है, अनादि है, अनन्त है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है। सभी जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं। उसमें परमात्मा का कोई हस्तक्षेप नहीं है। यह जीव की इच्छा पर निर्भर है कि वह सत्कर्म करे या दुष्कर्म। परमात्मा का उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। परन्तु जीवों को उनके कर्मों का फल परमात्मा प्रदान करता है। परमात्मा दुष्कर्मकारी पापियों का विनाश करने और सत्कर्मकारी धर्मात्मा सज्जनों का परित्राण एवं उद्धार करने और अपनी लीला दिखाने के लिए मनुष्यादि के रूप में अवतरित नहीं होता। परमात्मा सदैव पूजनीय, वन्दनीय और संस्मरणीय है। यह परमपिता परमात्मा का दूसरा रूप है, इसमें मनुष्य परमात्मा के बराबर खड़ा है। इसमें उसको अपनी इच्छानुसार कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। वह किसी के अधीन नहीं। परन्तु कर्मफल की प्राप्ति के लिए उसे परमात्मा के द्वार खटखटाने पड़ते हैं। परमात्मा का यह रूप आर्य समाज द्वारा मान्य है।' तृतीय रूप-परमात्मा का तीसरा रूप इस प्रकार है-प्रत्येक आत्मा में परमात्मभाव का निवास है। उस पर कर्मों का आवरण आया हुआ है। शरीर को आत्मा मानने वाला बहिरात्मा जब अपने ऊपर छाये हुए कर्मावरणों को दूर करके अन्तरात्मा बन जाता है और वही सम्यग्दृष्टिसम्पन्न तप-संयम से युक्त अन्तरात्मा धीरे-धीरे चतुर्य गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर आत्मगुणघातक चार घातिकमों का सर्वथा क्षय कर देता है, और वीतराग केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) अर्हत् परमात्मा बन जाता है, फिर शेष चारों ही कर्मों का क्षय करके चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली होकर निरंजन, निराकार, विदेह, सर्वकर्ममुक्त, सिद्ध, बुद्ध परमात्मा बन जाता है। १. ज्ञान का अमृत, से सारांश ग्रहण, पृ. ७६-७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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