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२२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) खतरनाक है। व्यक्ति के द्वारा प्रगति और परिवर्तन के अधिकार का अस्वीकार मनुष्य को स्थिति-स्थापक, गतानुगतिक, रूढ़िवादी और निराशावादी बना देता है। जब प्रगति और परिवर्तन दोनों मानव के हाथ में नहीं हैं, तथाकथित ईश्वर के हाथ में हैं तो मनुष्य अकिंचित्कर और ईश्वरमुखापेक्षी बन जाता है।
फलतः अपनी-अपनी धर्म-सम्प्रदाय-परम्परा के तथाकथित ईश्वर की खुशामद, चापलूसी एवं अन्धभक्ति करके पाप-माफी का फतवा ले लेते हैं। परन्तु इस प्रकार से किसी भी जीव को तब तक पाप-माफी नहीं मिल सकती, जब तक वह अपने पापों की आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा, प्रायश्चित्त आदि द्वारा शुद्धि न करले। अर्थात् अपने जीवन में जब तक व्यक्ति स्वयं परिवर्तन एवं अभ्युदय की साधना न करले, तब तक पापकर्मों से या कर्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती। नैतिक दृष्टिकोण से भी ईश्वरकर्तृत्ववाद असंगत है
ईश्वरकर्तृत्ववाद पर नैतिक दृष्टि से विचार करने पर भी वह असंगत लगता है। परिवर्तन और अभ्युदय व्यक्ति के स्वयं संकल्प पर आधारित है। यदि व्यक्ति को स्वयं संकल्प करने की स्वतंत्रता नहीं है तो वह अपने कृतकर्म के प्रति उत्तरदायी कैसे हो सकता है ? क्योंकि यदि व्यक्ति का कृत ईश्वराधीन है तो उत्तरदायी ईश्वर है, न कि व्यक्ति। वह तो यही कहेगा कि ईश्वर ने अच्छा या बुरा जैसा कराया, उसने कर लिया। इस दृष्टि से वह अपने द्वारा ईश्वराधीन या ईश्वरप्रेरित होकर किये गये अच्छे या बुरे कर्म का उत्तरदायी क्यों बनेगा? तथाकथित ईश्वर ने जब जैसा और जिस प्रकार से कराया, उसने तब वैसा, और उस प्रकार से कर लिया। इसमें जिम्मेबार कराने वाला है, करने वाला नहीं। फिर तो यंत्रमानववत् मानव भी कृतकर्म के प्रति उत्तरदायी नहीं रहेगा
___ एक यंत्र है, या लोहनिर्मित मानव (रोबोट) है, वह थोड़ी दूर चलता है और गोली चला देता है, जिससे निर्दोष व्यक्ति मारा जाता है। प्रश्न होता है-रोबोट जिम्मेवार है, उस अपराध के लिए या रोबोट को चलाने वाला है ? रोबोट तो बिल्कुल उत्तरदायी नहीं है, उत्तरदायी है यंत्रमानव (रोबोट) को चलाने वाला; क्योंकि यंत्रमानव उसी प्रकार चलता है, जिस प्रकार मानव उसे चलाता है। यदि मनुष्य तथाकथित ईश्वर (कर्तृत्ववादी) के समक्ष वैसा ही यंत्र-मानव है तो वह अपने द्वारा कृतकर्म के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि से यह एक जटिल पहेली है, जिसे सुलझाना ईश्वरकर्तृत्ववादियों के वश की बात नहीं है। जब सारी बाजी ईश्वररूप बाजीगर के हाथ में सौंप दी जाती है तब जीव द्वारा कृत अच्छे या बुरे कर्म का फलभोगकर्ता भी वही (ईश्वर) होना चाहिए।
१.
जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांशग्रहण, पृ. १०७
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