________________
कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २१५
अतिरिक्त अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा के वैभाविक (वैकारिक) भावों (रागद्वेषादि) का भोक्ता है, तथैव शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध चेतनभावों का भोक्ता है।" . ___आदिपुराण में कहा गया है-"(व्यवहार दृष्टि से) आत्मा परलोक सम्बन्धी पुण्य-पापजन्य फलों का भोक्ता है।” कार्तिकयानुप्रेक्षा में विविध कर्मविपाकजन्य सुख-दुःख का भोक्ता बताया है। उपचार से भोक्ता मानने का खण्डन ___सांख्यदर्शन का कहना है-पुरुष (आत्मा) को भोक्ता कहने का तात्पर्य है“विषयों का साक्षात् भोक्ता नहीं, बल्कि उपचार से भोक्ता-अनुभवकर्ता है। उपचार से भोक्ता कहने का आशय यह है कि पुरुष साक्षात् भोग कर्ता नहीं है, किन्तु बुद्धि में झलकने वाले सुख-दुःख की छाया 'पुरुष' में पड़ने लगती है, यही उसका भोक्तृत्व है। इसी पुरुष भोगकर्तृत्व के कारण पुरुष भोक्ता कहलाता है। जिस प्रकार स्फटिक मणि लाल (जपा) पुष्प के संसर्ग के कारण लाल हो जाता है, तथैव निर्मल स्वच्छ पुरुष प्रकृति के संसर्ग से सुख-दुःखादि का भोक्ता बन जाता है। अतः बुद्धिरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थों का द्वितीय दर्पण पुरुष में झलकना ही पुरुष का भोक्तृत्व है। इस भोक्तृत्व के अतिरिक्त पुरुष में अन्य किसी प्रकार का भोक्तृत्व नहीं है।"
शास्त्रवार्तासमुच्चय में इस कथन का खण्डन करते हुए कहा गया है कि पुरुष (आत्मा) अमूर्त है, उस पर किसी प्रकार का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। सांख्यों का पुरुष को उपचार से भोक्ता मानना ठीक नहीं है। दूसरी बात-उपचार से भोक्ता मानने पर सुख-दुःख का अनुभव आधारहीन हो जाएगा। अतः आत्मा वास्तविक रूप से भोक्ता है, औपचारिक रूप से नहीं।
१. (क) जैनदर्शन में आत्म विचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. १२० से १२२ तक · । (ख) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक २४६ (ग) एतेन विशेषणाद्-उपचरितवृत्यां भोक्तारं चात्मानं मन्यमानानां सांख्यानां निरासः॥
-षड्दर्शनसमुच्चय टीका, कारिका ४९ (घ) तथा स्वकृतस्य कर्मणोयत्फलं सुखादिकं तस्य साक्षात् भोक्ता च। -वही (ङ) जीवोवि हवइ भुत्ता, कम्मफलं सो वि भुंजते जम्हा।।
___कम्मविवायं विविहं सो चिय भुंजेदि संसारे। -कार्तिकयानुप्रेक्षा १/८९ २. (क) स्याद्वाद मंजरी पृ. १३५ (ख) प्रतिबिम्बोदयोऽप्यस्य नामूर्तत्वेन युज्यते।
भुक्तेरतिप्रसंगाच्च, न वै भोगः कदाचन॥ -शास्त्रवार्ता-समुच्चय, स्तबक ३ .... (ग) स्याद्वाद मंजरी का. १५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org