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________________ १४० कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) स्थानांग सूत्र में इसी आशय को स्पष्ट करने के एक चौभंगी दी गई है - "एक होता है शुभ कर्म पर उसका विपाक होता अशुभ; अर्थात् - बंधा हुआ है पुण्यकर्म परन्तु उसका विपाक (फल) होता है पाप । इसी प्रकार एक अशुभ कर्म है, पर उसका विपाक होता है, शुभ अर्थात् बंधा हुआ है - पापकर्म, किन्तु उसका फल होता है पुण्य | शुभ का फल शुभ और अशुभ का फल अशुभ ये दो विकल्प (भंग) तो स्पष्ट हैं, निर्विवाद हैं। किन्तु शेष पूर्वोक्त दो विकल्प जटिल हैं। ये दोनों विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं और जैन कर्मविज्ञानसम्मत संक्रमण सिद्धान्त के परिचायक हैं। " यह जाति संक्रमण है, जिसमें पूर्वबद्ध कर्म की प्रकृति का स्वजातीय अन्य प्रकृति में रूपान्तरण हो जाता है। इस प्रकार कर्म के एक भेद का अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल जाना है। अर्थात्-अवान्तर कर्म- प्रकृतियों की अदला-बदली हो जाना प्रकृति संक्रमण कहलाता है। वैसे तो सामान्यतया संक्रमण का एक ही भेद माना जाता है-जाति संक्रमण या प्रकृति संक्रमण परन्तु स्थानांग सूत्र में दूसरी विवक्षा से इसके ४ प्रकार बताये गए हैं (१) प्रकृति-संक्रमण, (२) स्थिति संक्रमण, (३) अनुभाव-संक्रमण एवं (४) प्रदेश-संक्रमण ' स्थिति संक्रमण, अनुभाव संक्रमण एवं प्रदेश संक्रमण उद्वर्तनाकरण तथा अपवर्तनाकरण में गतार्थ हो जाते हैं। कर्मविज्ञान द्वारा प्ररूपित संक्रमण को आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में मार्गान्तरीकरण (Sublimation of mental energy) तथा उदात्तीकरण कहा गया है। मार्गान्तरीकरण या रूपान्तरण का अर्थ है- किसी भी प्रवृत्ति या क्रिया का रास्ता बदल देना । सेक्स साइकोलॉजी के विशेषज्ञ फ्रायड की भाषा में मनुष्य की मूल (केन्द्रीय) वृत्ति प्रवृत्ति है - कामवृत्ति | फ्रायड के कथनानुसार उसका मार्गान्तरीकरण किया ज सकता है। जैसे- किसी सुन्दरी के प्रति कुत्सित कामवासना जागृत होती है, व्यक्ति उसके प्रति मोहित हो जाता है, किन्तु वह प्राप्त नहीं होती, ऐसी स्थिति में उस तीव्र कामेच्छा की प्रवृत्ति (वृत्ति) को मोड़कर चित्रकला, लेखनकला, काव्यकला या इष्टदेव भक्ति आदि लगाकर मन की दिशा को बदल देता है। यह कामवृत्ति का मार्गान्तरीकरण या रूपान्तरण है । ३ १. चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते तं., सुभे नाममेगे असुभ विवागे, असुभे नाममेगे सुभविवागे, सुभे नाम सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे ।” - स्थानांग ४ / ६०३ २. ३. स्थानांग सूत्र, स्थान ४, सू. २१६ जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित-' करणसिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया 'लेख पृ. ८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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