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________________ १३२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४). अहंता-ममता आदि विकारों से दूर रहकर समता और यतना के साथ प्रवृत्ति एवं निवृत्ति करता है। अपनी जीवनचर्या करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, एवं वैयक्तिक दायित्वों को समभावपूर्वक निभाता है, उनके साथ जुड़ा हुआ होने पर भी उनसे निर्लिप्त-सा रहता है। जैनकर्मविज्ञान : भिन्नता में भी एकता का दर्शन कराता है जैनकर्मविज्ञान बताता है कि मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़-पौधों में ही नहीं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक में चेतना है। इनमें परस्पर असमानता, तथा एक ही जाति के प्राणियों में व्यक्तिगत भिन्नता होते हुए भी सबमें एक वस्तु समान है, और वह है चेतना। इसलिए स्वरूप की दृष्टि से चींटी और हाथी की, वनस्पति और नरपति की, आत्मा एक समान है। इसीलिए स्थानांग सूत्र में कहा गया है-'एगे आया' अर्थात् (सब में स्वरूप की दृष्टि से) आत्मा एक (समान) है। शरीर, इन्द्रिय, स्वभाव आदि में भिन्नता होने पर भी चैतन्य गुण अथवा ज्ञान-गुणात्मक जो आत्मा है, वह सब में समान है। कर्मविज्ञान की यही विशेषता है कि वह भिन्नता में भी एकता के दर्शन कराता है।' जैनकर्मविज्ञान : प्राकृतिक नियमवत् नियमबद्ध जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र, ऋतु, ग्रह, नक्षत्र आदि सब प्राकृतिक नियमों से बद्ध हैं, वे अपने-अपने नियत समय पर ही अपना कार्य करते हैं; इसी प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्म भी अपनी-अपनी प्रकृति के नियमों और अपने-अपने कारणों से बद्ध होकर यथासमय अपना कार्य करते हैं, कर्ता को अपना फल देते हैं। जैनकर्मविज्ञान में प्रत्येक कर्म की मूल तथा उत्तर-प्रकृतियाँ नियत हैं। उनके बन्ध, बन्धहेतु, उदय, उदीरणा, सत्ता, स्थिति, संक्रमण आदि भी नियत हैं। कर्मविज्ञानवेत्ताः प्राणि भिन्नता देखकर भी समभाव रखता है ___जैनकर्म-विज्ञान के अनुसार संसारी आत्माएँ कर्मानुसार पृथक्-पृथक् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वचन, अंगोपांग, आकार, डीलडौल आदि धारण करती हैं। तथा एक ही जाति के अगणित प्राणियों में भी शरीर की रचना, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, बुद्धि, वाणी आदि प्रत्येक बातों में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। जैनकर्मविज्ञान इस विभिन्नता का कारण कर्मसिद्धान्त के नियम को बताता है। अर्थात् समग्र भिन्नताएँ कर्मविज्ञान के किसी न किसी नियम पर आधारित हैं। कर्मविज्ञानवेत्ता प्राणियों की इन सब विभिन्नताओं को देखकर उनसे न तो घृणा या विद्वेष करता है, और न ही उन पर मोह, आसक्ति या ममता १. देखें-अध्यात्म विज्ञान प्रवेशिका में जैन धर्म का प्राण' (पं. सुखलालजी) के निबन्ध से, पृ. ७ २. वही, पृ.७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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