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________________ १३० . कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) प्रचार, शोध, अनुसन्धान एवं विवेचन किस प्रकार हुआ है, इसका पर्याप्त उल्लेख हम कर्मविज्ञान के द्वितीय खण्ड-'कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन' के निबन्धों में कर चुके हैं। जैन परम्परा में कर्मवाद का सुव्यवस्थित वैज्ञानिक रूप यह सत्य है कि भारतीय दार्शनिकों ने कर्मवाद की स्थापना में योगदान दिया है, किन्तु जैन-परम्परा में कर्मवाद का जैसा सुव्यवस्थित एवं विज्ञानसम्मत रूप उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। वैदिक और बौद्ध साहित्य में कर्म-सम्बन्धी विचार इतना स्वल्प है कि इन दोनों परम्पराओं में कर्म विषयक कोई महत्त्वपूर्ण एवं स्वतंत्र ग्रन्य उपलब्ध नहीं है। जबकि जैन परम्परा के साहित्य में कर्म सम्बन्धी सभी पहलुओं से लिखे हुए अनेक स्वतंत्र एवं विशाल ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें कर्मविज्ञान पर अत्यन्त सुव्यवस्थित, सूक्ष्म एवं बहुत ही विस्तृत विवेचन है। अतः यह साधिकार कहा जा सकता है कि पौर्वात्य एवं पाश्चात्य सभी दर्शनों, धर्म-सम्प्रदायों एवं मतपन्थों के विचारों की अपेक्षा जैनकर्मविज्ञान के विचारों का महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है। कर्म सम्बन्धी समग्र चर्चा-विचारणा में भी जैनकर्मविज्ञान अग्रणी है। उसके अध्ययन के बिना, समझना चाहिए कि कर्म सम्बन्धी ज्ञान सर्वांग-परिपूर्ण नहीं हुआ।२ . कर्मविज्ञान की त्रिकालदार्शिता से त्रिकाल कर्म व्यवस्था कर्मविज्ञान अपने आप में कम्प्युटर की तरह दीर्घदर्शी है। कोई भी कर्म चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म, शुभ हो या अशुभ, मानसिक हो वाचिक हो या कायिक हो, इस जन्म में या अगले जन्म या जन्मों में अपना फल भुगवाए बिना नहीं रहता।. प्राणी जो भी शुभ-अशुभ क्रियाएँ करता है, वही उसके फल का भोक्ता है। यदि वह इस जीवन में उन सब परिणामों को नहीं भोग पाता है, तो वे बद्धकर्म सत्ता में पड़े रहते हैं, अपना अबाधाकाल पूर्ण होते ही वे उदय में आते हैं, और उस समय जैसा भी कर्म का उदय होता है, तदनुसार उसका विपाक (फलभोग) प्राणी को करना होता है। अर्थात् एक जन्म में उन-उन परिणामों को नहीं भोग पाता है तो आगामी जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्मविज्ञान पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के सिद्धान्त को मानकर प्रत्येक प्राणी के कर्मों की त्रिकालस्पर्शी व्याख्या करता है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि प्राणी का वर्तमान व्यक्तित्व (कार्य-कर्म) उसके पूर्ववर्ती व्यक्तित्व (कर्म) का परिणाम है और यही वर्तमान व्यक्तित्व (कर्म) उसके आगाभी व्यक्तित्व का निर्माण करता है। १. देखें-कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (द्वितीय खण्ड) में 'कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा' २. विपाकसूत्र प्रस्तावना (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. १५ ३. देखें-जैनकर्मसिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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