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________________ ११८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) जीवों की विविध अवस्थाएँ हैं। जीवस्थान के निरूपण से यह जाना जा सकता है कि जीवस्थानरूप १४ अवस्थाएँ जाति-सापेक्ष हैं, अथवा शारीरिक रचना के विकास-या इन्द्रियों की न्यूनाधिक संख्या पर निर्भर हैं। वास्तव में ये सब कर्मकृत (कर्मोपाधिक) या वैभाविक होने के कारण आत्मा से भिन्न हैं, पर हैं, अशाश्वत हैं, स्वकीय नहीं हैं, अत: ____ मार्गणास्थान के बोध से यह ज्ञात हो जाता है कि सभी मार्गणाएँ जीव व स्वाभाविक अवस्था रूप नहीं हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिः चारित्र और अनाहारकत्व के अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएँ न्यूनाधिकरूप में स्व-भाव बाह्य हैं। अतएव आत्मा के पूर्ण शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक जीवों के लिए अन्ततः हेय ही हैं। गुणस्थान के परिज्ञान से यह विदित हो जाता है कि गुणस्थान आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने वाली आत्माओं की उत्तरोत्तर विकास सूचक भूमिकाएँ हैं। पूर्व-पूर्व भूमिका के समय उत्तर-उत्तरवर्ती भूमिका उपादेय होने पर भी चौदहवीं परिपूर्ण विकास की भूमिका प्राप्त कर लेने के बाद सभी भूमिकाएँ स्वतः ही छूट जाती हैं। पंच भावों का परिज्ञान होने पर यह निश्चय हो जाता है कि क्षायिक भावों को छोड़कर अन्य सब भाव, भले ही उत्क्रान्तिकाल में उपादेय हों, पर अन्त में हेय ही हैं। इस प्रकार जैनकर्मविज्ञान ने आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप क्या है और अस्वाभाविक क्या है, इसका विवेक करके कर्ममुक्त स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त करने का संकेत कर दिया है। इससे प्रत्येक जिज्ञासु और मुमुक्षु ही नहीं, सामान्य बोध वने मानव को भी जैनकर्मविज्ञान की महत्ता का अनुभव हो सकता है। गुणस्थान-निरूपण का उद्देश्य जैनकर्मविज्ञानमर्मज्ञों का कर्म के सन्दर्भ में गुणस्थानों का निरूपण करने का उद्देश्य भी यही था कि सांसारिक जीव, पहली निकृष्ट गाढ़ मिथ्यात्व एवं अज्ञान के अवस्था से निकल कर अपनी आत्मिक स्व-भावचेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास की बदौलत शनैः शनैः उन शक्तियों के विकासानुरूप उत्क्रान्ति करता हुआ विकास के सर्वोच्च शिखर-अन्तिम सीमा तक पहुँचे, जो कि आत्मा का परम साध्य है। १. एकः सदा शाश्वतिको ममाऽत्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥ -सामायिक पाठ (अमितगति) श्लोक २६ २. कर्मग्रन्थ चतुर्थ (पं. सुखलालजी) प्रस्तावना पृ. ८-९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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