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९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
जैनकर्मविज्ञान का त्रिकालस्पर्शी यथार्थ मत
आचारांग सूत्र में कर्म-सिद्धान्त की त्रिकालानुस्यूत दृष्टि से अनभिज्ञ कतिपय दार्शनिकों और विचारकों का मत प्ररूपित करते हुए कर्मसिद्धान्त का त्रिकालानुसारी सत्य तथ्य बताया गया है- "इस जीव का अतीत क्या था? इसका भविष्य कैसा होगा? इस प्रकार कतिपय लोग भूत और भविष्य का स्मरण-चिन्तन नहीं करते।" कितने ही लोग कहते हैं-“इस संसार में जीव का जो अतीत था, वही (वैसा ही) उसका भविष्य होगा।” किन्तु सर्वज्ञ वीतराग प्रभु अतीतार्थ को-अतीत के अनुसार भविष्य के होने की बात को अथवा भविष्यार्थ-भविष्य के अनुसार अतीत के होने की बात को स्वीकार नहीं करते। अतीत या भविष्य (अथवा वर्तमान भी) कर्मों के अनुसार ही होता है। अतः इस कर्मविज्ञान के त्रिकाल दर्शन के ज्ञाता-द्रष्टा आचरणयुक्त, महर्षि (पूर्वकृत) कर्मों को धुनकर क्षय कर डालते हैं। अतीत को जानो, वर्तमान में सत्पुरुषार्थ करो और भविष्य को देखो
जैन कर्मविज्ञान यह नहीं कहता कि अतीत के अनुसार ही वर्तमान बनेगा और वर्तमान के अनुसार ही सारा भविष्य बनेगा। किन्तु उसका संकेत है-अतीत को जानो, वर्तमान में उससे प्रेरणा लेकर उसमें से उपादेय तत्त्व को अपनाओ एवं भविष्य को अवश्य देखते रहो, ताकि वर्तमान में अशुभकर्मों-पापकर्मों के जत्थे से तुम्हारा भविष्य न बिगड़ने पाए।
भगवान् महावीर ने आचारांग का पूर्वोक्त सूत्र इसीलिए दिया है कि लोग निराश होकर बैठ जाते हैं अतीत के भरोसे पर, वे वर्तमान में कोई शुभ या शुद्ध पुरुषार्थ नहीं करते। फलतः उनका वर्तमान भी बिगड़ता है और भविष्य भी; क्योंकि वे अतीत जैसा ही भविष्य होगा, ऐसा मानने लग जाते हैं, ये सब भ्रान्तियाँ आस्तिक वर्ग में बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही हैं।
जैन कर्मविज्ञान ने इन भ्रान्तियों का उन्मूलन करने के लिए कर्म-विज्ञान का शास्त्र रचा और बहुत बारीकी से प्रत्येक तथ्य का विश्लेषण करके बताया कि प्रत्येक प्राणी के अतीत, वर्तमान और भविष्य को केवल काल के साथ बंधा हुआ मत मान लो, वह कर्म के साथ भी निश्चितरूप से बंधा हुआ है।
१. "अवरेण पुच्विं न सरंति एगे, किमस्सतीतं, किंवागमिस्सं?
भासंति एगे इह माणवा उ।जमस्स तीतं तमागमिस्सं ।। णातीतम₹ण य आगमिस्सं, अटुं नियच्छंति तहागया उ। विधूतकप्पे (कम्मे) एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥
-आचारांग श्रु.१,अ. ३, उ.३, सू.४0१,४०२
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