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जहाँ कर्म, वहाँ संसार
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जीवात्मा ने पहले जैसे कर्म किये हैं, तदनुसार कभी देवलोकों में जन्म लेता है, कभी नरक में उत्पन्न होकर भयंकर दुःखों की ज्वालाओं में झुलसता रहता है और कभी देवों में भी नीची जाति के असुरकायों (दानवों) के संसार में जन्म ग्रहण करता है।
इसी प्रकार यह संसारस्थ जीव कभी पशुयोनियों में उत्पन्न होता है और कभी शुभकर्मों की प्रचुरता के कारण मनुष्य बनता है। मनुष्यों में भी कभी क्षत्रिय, कभी दुष्कर्मों के प्रभाव से अत्यन्त नीच गोत्रीय चाण्डाल या वर्णसंकर (बोक्कस) होता है। फिर वह चींटी, मच्छर, कीट, पतंग, सांप, बिच्छ, नेवला, सिंह, बाघ, हिरण आदि प्राणियों की विभिन्न योनियों में जन्म-मरण करता रहता है। इन सब में वह अपने कर्म के प्रभाव से पैदा होता है।
जिस प्रकार क्षत्रिय लोग चिरकाल तक समग्र ऐश्वर्य एवं सुख भोग के साधनों का उपभोग करने पर भी विरक्ति (निर्वेद) को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मों से अत्यन्त मलिन जीव अनादि काल से आवर्त रूप योनिचक्र में जन्म-मरणरूप संसार में परिभ्रमण करते हुए भी संसारदशा से निर्वेद (वैराग्य) प्राप्त नहीं करते। अर्थात् वे इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने की इच्छा ही नहीं करते।" . भगवद्गीता में भी यही कहा गया है कि “जो व्यक्ति सद्धर्म में श्रद्धारहित हैं, वे मुझे प्राप्त न होकर (जन्म-) मृत्यु रूप संसार-चक्र में कर्मवशात् भ्रमण करते है।"२
__ इस प्रकार इस जन्म-मरणादिरूप विशालकाय संसार का मूल कारण कर्म के सिवाय और कोई नहीं है। भूतवादियों द्वारा मान्य केवल इहलौकिक क्रिया-कर्म
जैनदर्शन की इस युक्तिसंगत मान्यता के विपरीत भूत-चैतन्यवादी चार्वाक, बार्हस्पत्य, लोकायतिक, पंचभूतवादी, तज्जीव-तच्छरीरवादी कुछ दार्शनिक ऐसे हैं, जो कर्म और कर्मफल सम्बन्धी कार्य-कारण-परम्परा को अतीत और अनागत से न जोड़कर केवल इहलोक तक ही मानते हैं।
१. एगया खत्तिओ होइ, तओ चांडाल बोक्कसो ।
तओ कीड-पयंगो य, तओ कुन्यु-पिवीलिया। एवमावट्ट जोणिसु पाणिणो कम्म किव्विसा ।
न निविज्जति संसारे सव्वढेसु व खत्तिया ।। २. अश्रद्धाना पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप !
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्य-संसार वर्त्मनि ॥
- उत्तरा. ३/४-५
भगवद्गीता ९/३
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