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जहाँ कर्म, वहाँ संसार ४३
घातिकर्म हट जाते हैं। घातिकर्मों का हटना ही संसार का और सांसारिक दुःखों का नष्ट होना है। संक्षेप में - " जिसका मोह नष्ट हो गया, उसका समस्त दुःख नष्ट हो जाता है । ""
यही वह संसार है.
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यही वह संसार है जहाँ एक जन्म का लाड़ला पुत्र दूसरे जन्म में जान लेवा शत्रु बन सकता है। यही वह संसार है, जहाँ एक जन्म का मकान मालिक दूसरे जन्म में अपने ही भूतपूर्व मकान में कुत्ता बनकर घुसने लगे तो उस पर डंडे पड़ते हैं। इस संसार में इस जन्म के मोटर के कारखाने का स्वामी अगले जन्म में बैलगाड़ी खींचने वाला बैल बन सकता है। इस जन्म का विद्वान् प्रोफेसर आगामी जन्म में अस्पष्ट भाषी अव्यक्त शब्द उच्चारण करनें वाला गूंगा मानव या पशु-पक्षी अथवा मक्खी-मच्छर आदि बन सकता है। आज का कुश्तीबाज पहलवान आगामी जन्म में दुर्बलकाय, रुग्ण मानव, पशु या गोबर का कीड़ा बन सकता है। आज जो राजा, शासक या राष्ट्रपति है, वह आगामी जन्म में नरक का अतिथि बन सकता है। आज जो करोड़पति है वह अगले जन्म में रोडपति भिखारी बन सकता है। वस्तुतः संसार की यह सब उथल-पुथल कर्मों के कारण ही होती है । अध्यात्मसार में संसार का कर्मजनित स्वरूप इसी प्रकार का बताया गया है- पूर्वकृत कर्मों के कारण इस संसार में किसी जन्म में विशाल राज्य मिल जाता है, तो किसी जन्म में जरा सा भी धन मिलना दुर्लभ हो जाता है । किसी जन्म में उच्च जाति प्राप्त होती है, तो किसी जन्म में नीच कुल का अपयश मिलता है। किसी जन्म में देह को अतिशय सौन्दर्यश्री प्राप्त होती है तो किसी जन्म में शरीर को सुरूप भी नहीं मिलता। इस प्रकार संसार की विषमता (विचित्रता) भला किसे प्रीतिकारी हो सकती है।
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१ (क) रागो य दोसो वि य कम्म बीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाइ मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइ मरणं वयंति ॥
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(ख) दुक्ख हयं जस्स न होई मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तरहा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥
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२ क्वचित् प्राज्यं राज्यं क्वचन धनलेशोऽप्यसुलभः । क्वचिज्जाति - स्फातिः क्वचिदपि च नीचत्व- कुयशः ॥ क्वचिल्लावण्य श्रीरतिशयवती, क्वापि न वपुः - स्वरूपं, वैषम्यं रतिकरं कस्य नु भवे ?"
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- उत्तराध्ययन अ. ३२ गा. ७
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- वही, अ. ३२, गा. ८
अध्यात्मसार १/४/११
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