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कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप ६१५
समझ लेना भी अवश्यक है। हमारे विचार में आत्म-प्रदेश और कर्मपरमाणु न नीर-क्षीर की भांति मिलते हैं; और न ही लोहाग्नि की तरह, क्योंकि आत्मप्रदेश सदा अखण्डित रहते हैं। जैसे-दूध कण-कण के रूप में बिखर सकता है, वैसे आत्मप्रदेश नहीं। तथा जैसे-लोहे के कणों के अन्दर अग्नि प्रवेश कर जाती है, वैसे आत्म-प्रदेशों के अन्दर कर्मपरमाणुओं का प्रवेश नहीं हो सकता; क्योंकि उनमें कहीं भी कोई वस्तु प्रविष्ट नहीं हो सकती। अतः आत्मप्रदेशों और कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध मेघाच्छन्न सूर्य की भांति या चन्द्रग्रहण की भांति, अथवा स्वर्ण पर लगे मल की भांति ही समझना चाहिए, क्योंकि कर्म-परमाणु आत्मप्रदेशों को केवल आवृत करते हैं, आवरण बनकर उन पर छा जाते हैं, तथा उनकी ज्ञानादि शक्तियों को पर्दा बनकर ढक देते हैं, किन्तु उनसे एकमेक नहीं होते। इसलिए आत्मप्रदेशों और कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध स्वर्ण पर लगे मल की भाँति मानना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।' 'जिएण' की व्याख्या ___'जिएण' की व्याख्या करते हुए आचार्य देवेन्द्रसूरि कहते हैं-प्रश्न होता है-कर्मबन्ध (आत्मप्रदेश के साथ कर्म-पुद्गलों के सम्बद्ध) होने की क्रिया किसके द्वारा की जाती है ? इसके उत्तर के लिए लक्षणों में 'जिएण' शब्द दिया गया। जितने भी कर्म होते हैं, वे सब जीव के द्वारा किये जाते हैं। जीव का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-पांच इन्द्रियाँ, मनोबलादि तीन बल, उच्छ्वास-निःश्वास और आयु, इन दस प्राणों को जो यथायोग्य धारण करता है, जीता है, वह जीव है। जीव तो दो प्रकार के होते हैं-सिद्ध और संसारी। ऐसा जीव कौन है ? संसारस्थ जीव ही है। कर्म की दृष्टि से ऐसे जीव का लक्षण है
यः कर्ता कर्मभेदाना भोक्ता कर्मफलस्य च।
संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः॥ - इसका भावार्थ यह है कि मिथ्यात्व आदि के कारण कलुषित हुआ जीव सातावेदनीय आदि कर्मों का और उसके विविध भेद विशिष्ट कर्मों का कर्ता है, विशिष्ट सातावेदनीय आदि कर्मों के फल का उपभोक्ता है तथा कर्मविपाकोदय के अनुसार नर-नारक आदि भवों में संसर्ता (परिभ्रमण करने वाला) है। साथ ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सम्पन्न रत्नत्रय के प्रबल अभ्यास (साधना) वश समस्त कर्मों का क्षय करने से परिनिर्वाता . १. ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनि जी) पृ. २१-२२ २. कर्मग्रन्थ भा. १ (आचार्य देवेन्द्र सूरि जी) अभिधान राजेन्द्र कोष 'कर्म' शब्द से
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