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________________ कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप ६११ का सकषाय जीव और इसके द्वारा इन मिथ्यात्वादि पंचविध कारणों से किये हुए सहेतुक कर्म हों, उन्हीं का इसमें समावेश होगा। कर्म के इस परिष्कृत स्वरूप में इन कर्मों के स्वरूप का समावेश नहीं होगा, जो सांसारिक जीवों के द्वारा अनिच्छाकृत, स्वतः होने वाली क्रिया का कार्य हो, अथवा ऐर्यापथिक क्रिया का कर्म हो । अर्थात् जो कर्म बंधकारक कर्म की कोटि में नहीं आते, तथा कषाय-रागद्वेषादि (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय) से रहित परिणामों से जो किये जाते हों, उन कर्मों के स्वरूप का समावेश इसमें नहीं होगा। इस परिष्कृत स्वरूप द्वारा स्पष्ट बोध हो जाएगा कि कौन-सी क्रिया का कर्म तथा किस प्रकार की आत्मा द्वारा, किन कारणों से किया हुआ कर्म बन्धकारक होता है। इसे स्पष्टतः समझने के लिए एक रूपक लीजिए। मान लीजिए - इस समय इस स्थान पर कषाययुक्त संसारी जीव बैठे हैं, वे निरन्तर प्रतिक्षण कर्मों का संग्रह कर रहे हैं। परन्तु उसी समय, उसी स्थान पर उनके बदले यदि कोई वीतराग पुरुष बैठें तो साम्परायिक कर्म एकत्रित नहीं करते, क्योंकि उनके कषाय न होने से केवल ईर्यापथिक कर्मों का संग्रह होता है। सिद्ध भगवान् तो किसी भी प्रकार के कर्म का ग्रहण नहीं करते; वे तो कर्मों से सर्वथा मुक्त होते हैं। इस लोक में हम संसारी जीव भी रहते हैं और सिद्ध भगवान् भी लोक़ के अग्रभाग पर रहते हैं। लोक का कोई भी कोना खाली नहीं है, जहाँ कर्मवर्गणा के पुद्गल न घूम रहे हों। लोक में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ शब्दलहरी नहीं घूम रही हो । यही कारण है कि रेडियो, ट्रांजिस्टर, वायरलेस या टेलिविजन कहीं भी बैठ कर बजाने से शब्दलहरी तथा संगीतलहरी वहाँ पहुँच जाती है। जैसे शब्दलहरी लोक (ब्रह्माण्ड ) में सर्वत्र फैल जाती है, उसी तरह, बल्कि उससे भी सूक्ष्म कर्म - लहरी समग्र लोक में सर्वत्र फ़ैली हुई है। यह आपके और हम सबके शरीर के चारों ओर घूम रही है, और सिद्ध भगवन्तों और सदेह वीतराग सयोगी केवली भगवानों के भी चारों और घूम रही है, किन्तु सिद्ध भगवन्तों अर्हत्- भगवन्तों एवं सयोगी केवली वीतराग पुरुषों के कर्म चिपकते नहीं । जबकि आपके और हम सबके कर्म चिपक जाते हैं। इसका रहस्य यही है कि सिद्धों, अर्हन्तों और सयोगी केवली भगवन्तों में वे कारण (कषाय-रागद्वेषादि के परिणाम) नहीं हैं । " १. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक के 'कर्मों की धूप-छांव' लेख के भावांशं उद्धृत पृ १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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