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६०४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
क्योंकि क्रियमाण कर्म करने में तो मानवमात्र स्वतंत्र है और उसे नियंत्रित करना उसके हाथ की बात है। प्रारब्ध कर्म भी उसके समक्ष आकर खड़े हो जाते हैं, उन्हें भी मनुष्य चाहे तो अपने जीवनकाल के दौरान समभाव से अथवा फलाकांक्षा, फलासक्ति, कामना, वासना आदि से रहित होकर भोगे तो समाप्त कर सकता है।
परन्तु संचित कर्म तो अभी परिपाक अवस्था में तथा फल देने के लिए तैयार हुए ही नहीं हैं। वे तो प्रत्यक्ष सामने आकर खड़े नहीं हैं। फिर वे तो अतीत में हुए क्रियमाण कर्म हैं। ये वे कर्म हैं जो हो गए हैं, उन्हें अब 'नहीं.. हुए' कैसे किये जा सकते हैं ?
जैसे एक बार छूटा हुआ तीर वापस तरकश में नहीं आ सकता, एक बार बोला हुआ वचन वापस नहीं खींचा जा सकता, बंदूक में से छूटी हुई गोली वापस बन्दूक में नहीं आ सकती, वैसे ही एक बार जो क्रियमाण कर्म हो गया, वह अभी संचितरूप में जमा पड़ा है, वह प्रारब्धरूप में आकर सामने खड़ा नहीं हुआ। ताकि उसे समभाव से भोगकर उससे छुटकारा पाया जा सके। और फिर संचित कर्म भी एक-दो नहीं, एक दिन, सप्ताह या वर्ष के नहीं कई वर्षों के, कई जन्मों के जत्थे के जत्थे हैं, उनसे कैसे छूटा जाए?
कदाचित् उनमें से जो कर्म पकते जाएँ और प्रारब्ध कोटि में आते जाएँ, उन्हें भोगते जाएँ फिर भी उनके साथ-साथ नए-नए असंख्य क्रियमाण कर्म भी एक जीवन में बंधते जाते हैं। वे संचित कर्म अनन्तकाल तक जीव को जन्म-मरण के चक्कर में भ्रमण कराते रहते हैं। ऐसी स्थिति में उन अनन्त संचित कर्मों से व्यक्ति कैसे मुक्त हो सकता है ? सर्व कर्मों से मुक्त हुए बिना तो मोक्ष हो नहीं सकता।
गीता और वेदान्त इसका समाधान इस प्रकार करते हैं-ऐसी परिस्थिति में भी साधक को घबराने की जरूरत नहीं। उसके मन में तीव्रश्रद्धा, तड़फन और मुक्ति या परमात्मतत्त्व प्राप्ति की अदम्य अभिलाषा (संवेग) होनी चाहिए।
जिस प्रकार प्रकोष्ठ (कमरे) में व्याप्त सघन अन्धकार को प्रकाश की किरण क्षणभर में मिटा देती है; घास के बड़े से बड़े ढेर को एक ही दियासलाई लगाकर थोड़ी ही देर में जलाकर खाक कर दिया जाता है, वैसे ही असंख्य वर्षों से अनन्त कर्मों के संचित ढेर को भी ज्ञानरूपी अग्नि भस्म कर डालती है। मेरुपर्वत सम आकार वाले पापरूपी पराल के पुंज को क्या ज्ञान-दर्शन-चारित्राग्नि भस्म नहीं कर डालती?
१. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से भावांश उद्धृत पृ. ५६-५७
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