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५८६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
कहते हैं। इसी संचितकर्म को नैयायिक - वैशेषिक 'अदृष्ट' और मीमांसक 'अपूर्व' कहते हैं।
इन नामों के पड़ने का कारण यह है कि जिस समय कर्म या क्रिया की जाती है, उसी समय के लिए वह दृश्य (दृष्ट) रहती है, उस समय के बीत जाने पर वह क्रिया स्वरूपतः शेष (दृष्ट) नहीं रहती, किन्तु उसकी सूक्ष्म, अतएव अदृष्य अर्थात् अपूर्व और विलक्षण परिणाम ही बाकी रह जाते हैं। उन सब संचित कर्मों को एकदम भोगना असम्भव है; क्योंकि इनके परिणामों से कुछ परस्पर विरोधी भले-बुरे दोनों प्रकार के (स्वर्गप्रदनरकप्रद) फल देने वाले हो सकते हैं । "
उदाहारणार्थ-एक विद्यार्थी वार्षिक परीक्षा देता है। परीक्षा प्रश्नपत्र का उत्तर उत्तरपुस्तिका में लिखने के बाद तुरंत उसका परीक्षाफल नहीं मिल जाता । परीक्षाफल एक-डेढ़ महीने बाद प्रकाशित होता है। किसी ने सुबह जुलाब लिया । किन्तु तत्काल शौच न लगकर लगभग ४ घंटे बाद लगती है। किसी ने किसी को गाली दी, उसने १० दिन बाद मौका देखकर गाली देने वाले के मुँह पर तमाचा जड़ दिया। किसी ने अपनी जवानी में अपने माता-पिता को कष्ट दिया, उस समय त उसका फल नहीं मिला; संभव है उसकी वृद्धावस्था में उसका पुत्र उसे दुःखी करदे। किसी व्यक्ति ने इस जन्म में संगीतकला की उपासना की, आगामी जन्म में बचपन से ही वह संगीतविद्या में निपुण हो सकता है।
इस प्रकार कितने ही क्रियमाण कर्म तत्काल फल नहीं देते, काल पकने पर ही वे फल देते हैं, तब तक संचित कर्म के रूप में जमा पड़े रहते हैं। कृषिविज्ञानविशारदों का अनुभव है कि बाजरी की फसल ९० दिन में और गेहूँ की १२० दिन में पकती है । आम ५ वर्ष बाद फल देता है। जिस प्रकार का क्रियमाण कर्म का बीज होता है, उसे उसी प्रकार फलितपरिपक्व होने में न्यूनाधिक समय लगता है। ' संचित और क्रियमाण कर्म, एक-दूसरे से अनुस्यूत
संचित और क्रियमाण कर्म परस्पर एक दूसरे से अनुस्यूत हैं। मानलो, किसी ने आज सारे दिन में १000 क्रियमाण कर्म किये। उनमें से नौ सौ क्रियमाण कर्म ऐसे थे, जो तत्काल फल देकर शान्त हो गए, सिर्फ १०० कर्म ऐसे थे, जिन्हें फल देने में देर लगी । अतः वे कर्म संचित होकर जमा हो गए। आगामी कल को दूसरे १२५ कर्म संचित हुए। परसों उनमें से ७५ कर्म
१. पंचम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना (पं. फूलचंद जैन सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. १९
२. कर्मनो सिद्धान्त पृ. ४
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