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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
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घाती कर्मों को उन्मूलन करने का क्रम
घातीकर्म को उन्मूलन करने का क्रम यह है-सर्वप्रथम वह अप्रमत्तसंयत दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसकी दृष्टि अतीव निर्मल, सत्यपूर्ण एवं निर्भय हो जाती है। उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि वह वैराग्य, तप (बाह्याभ्यन्तर तप) एवं त्याग की श्रेणियों पर समस्त बाह्यग्रन्थियों का भेदन कर देता है; और परमनिर्ग्रन्थ बन जाता है। फिर वह कठोर तप, परीषहजय, उपसर्ग.समता, समभावभावित आत्मा एवं धर्म-शुक्लध्यान समाधि आदि के द्वारा अन्तरंग ग्रन्थियों को तोड़ने का अभ्यास करता है। फलतः कर्मों की सत्ता में भगदड़ मच. जाती है। स्थिति और अनुभाग का तीव्र वेग से अपकर्षण होने लगता है। आगे-आगे उत्तरोत्तर मन्द अनुभाग को लेकर ही कर्म उदय में आता है, जिससे उसकी चारित्रिक साधना बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार कुछ ही समयों में चारित्रमोह का उपशम और पूर्व क्रम से क्षय हो जाता है। इस प्रकार चारित्रमोह की सत्ता का उन्मूलन हो जाने के कारण वह 'यथाख्यातचारित्र' नाम पाता है। अर्थात्-उसकी समता तथा प्रशमता जैसी लक्षित की गई थी, वैसी हो जाती है; क्योंकि मोह और क्षोभ (राग-द्वेष) ही ज्ञान, दर्शन और शक्ति को आच्छादित करते थे, उनका अभाव हो जाने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय, ये तीनों घातिया प्रकृतियाँ भी उनका साथ छोड़ने के लिए बाध्य हो जाती हैं। फलस्वरूप वह (आत्मा) अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आत्मिक सुख और अनन्त आत्मशक्ति का धनी सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा और सर्वसमर्थ हो जाता है। यही है -उसकी अर्हन्त अवस्था। इस अवस्था में वह शरीरयुक्त होते हुए भी जीवन्मुक्त वीतराग परमात्मा बन जाता है।' घातीकर्म समूल नष्ट हो जाने पर
इस प्रकार घातीकर्म समूल नष्ट हो जाने से वह (आत्मा) केवलज्ञानकेवलदर्शनधारक अरहन्त केवली बन जाता है। केवलज्ञान-केवलदर्शन के प्रभाव से वह अतीत, वर्तमान और भविष्यत्कालीन सर्वभावों को जानतादेखता है। अघाती कर्म : प्रभाव और कार्य .. यद्यपि विदेहमुक्त होने में चार अघातीकर्म शेष रह जाते हैं। जब तक शरीर है, आयु है, तथा कुछ कर्मों का भोगना बाकी है, तब तक शरीर से सम्बन्धित वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चारों अघाती कर्मों की १. कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) पृ. १६८
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