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________________ सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५६९ जैनसिद्धान्तानुसार दशवें गुणस्थान तक संज्वलन लोभ रहता है। अतः निष्काम कर्मयोगी में प्रशस्तराग का अंश शेष होने से वह पूर्णतया फलाकांक्षा का त्याग तो नहीं कर सकता, फिर कैसे कहा जाता है कि निष्कमं करने वाला फलाकांक्षा का त्यागी होता है । " 'सिद्धान्त और आचरण में अन्तर रहेगा ही इस शंका का समाधान यह है कि यहाँ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है; सिद्धान्त सदैव पूर्ण का, आदर्श का प्रतिपादन करता है क्योंकि आत्मा के शुद्ध स्वभाव में अपूर्णता का प्रश्न नहीं होता । पूर्णता - अपूर्णता की अथवा गुणस्थान की चर्चा आचारपक्ष में होती है। इसलिए साधकदशा में इस सिद्धान्त का साधकों की अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार विविध तारतम्य रहता है। पूर्णता तक पहुँचने तक न्यूनाधिकरूप में मन्दमन्दतररूप में— कषायभाव या प्रशस्तरागभाव उसमें रहना स्वाभाविक है । इसीलिए गीता में भी कहा गया है - वीतरागता की भूमिका = योगारूढ़ता की स्थिति तक न पहुँचने तक साधक को अपना कर्तृत्वकर्म अनासक्त और फलाकांक्षा-निरपेक्ष होकर करना चाहिए। इसीलिए कहा गया है - निष्काम कर्म की भूमिका में जितने अंश में फलाकांक्षा रूप रागांश विद्यमान है, उतने अंश में चारित्र में कमी है, और उतने अंश में उसकें बन्ध अवश्य है। इसके विपरीत जितने अंश में फलाकांक्षारूप राग का अभावरूप चारित्र समभाव विद्यमान है, उतने अंश में उसे बन्ध नहीं होता । २. • अप्पाण वोसिरामि : निष्कामकर्मी का मूल मंत्र यही बात जैन- परिभाषा में 'अप्पाण वोसिरामि' कहकर 'स्व के अहत्व-ममत्वादि का विसर्जन करता हूँ' कहकर तमाम धार्मिक क्रिया, व्रत, तप आदि अनुष्ठान करने वाले निष्कामकर्मयुक्त साधक के विषय में समझ लेनी चाहिए और गीता की भाषा में समर्पित और शरणागत होकर 'इद' न मम' कहकर समस्त कर्मों (कार्यों) के प्रति अहंत्व, ममत्व या अहंकर्तृत्व का विसर्जन परमात्मा को समर्पित करने वाले निष्कामकर्मी साधक की समझ लेनी चाहिए। " १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १४३ २. (क) वही, पृ. १४३ (ख) येनांशेन तु चारित्र, तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तुं रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥ ३. (क) कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १४० (ख) आवश्यक सूत्र में 'करेमि भंते' का पाठ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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