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सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५६५
आसक्ति का त्याग करते हुए कर्म करते हैं, वे जल से कमलपत्र के सदृश पाप से लेपायमान नहीं होते । "
सकाम कर्म की प्रवृत्ति: निपटस्वार्थानुरंजित
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इसके विपरीत, सकाम कर्म की प्रवृत्ति स्वार्थानुरंजित होने के कारण तीव्र कषायमूलक होती है। अतिस्वार्थ या तुच्छ स्वार्थ केवल अपने मतलब को येन-केन-प्रकारेण सिद्ध करना तथा अपने विषय को प्राप्त करना जानता है। वह न्याय अन्याय की, हिताहित की, या स्वहित के साथ पर हित की अथवा स्व- अहित पर अहित की चिन्ता करना नहीं जानता । इसके लिए वह अनेक प्रकार के छल-प्रपंच, झूठ- फरेब, धोखाधड़ी, चोरीठगी या बेईमानी करता है । मेरी इस प्रवृत्ति से दूसरों का कितना अहित, नुकसान होगा या दूसरे को कितना कष्ट उठाना पड़ रहा है, इस चिन्तन-मनन के लिए उसके पास वैसा हृदय ही नहीं होता। जिस किसी तरीके से अधिकाधिक अर्थ और पदार्थों का ममत्वपूर्वक संचय और उपभोग करते रहना ही उसका लक्ष्य होता है।
दूसरी बात यह है कि जहाँ उत्कट फलाकांक्षा होती है, वहाँ उसके साथ तीन बातें जुड़ी रहती हैं- स्वामित्व, अहंकर्तृत्व और अहंभोक्तृत्व। पहले किसी वस्तु पर कामना और ममता होती है, तब उसके साथ स्वामित्व जुड़ता है। पूर्वकृत पुण्योदय से कदाचित् मनश्चितित या मनोज्ञ वस्तु की न्यूनाधिक रूप में पूर्ति हो जाती है, तब उसे स्वार्थ की सगी बहनें अहंता, ममता होती हैं, फिर अहंकर्तृत्व, स्वामित्व और अहं भोक्तृत्व के रूप में स्वार्थ के सहोदर भाई आ मिलते हैं । "
आशय यह है कि किसी भी विषय पर स्वामित्व प्राप्त करने के लिए पहले कर्तृत्व आवश्यक है। मैं करता हूँ, मैंने किया, इस प्रकार का कर्तृत्व- अभिमान हो जाने पर प्राप्त विषय का उपभोग करने के प्रति रति, या आसक्ति हो जाती है। दूसरे की वस्तु को या मनोज्ञ पदार्थ को जाना जा सकता है परन्तु उसका उपभोग करने की इच्छा सहसा नहीं हो सकती। किन्तु फलाकांक्षा के गर्भ में अहंत्व, ममत्व, अहंकर्तृत्व, स्वामित्व एवं अहंभोक्तृत्व आदि तुच्छ - स्वार्थभाव रहते हैं।
१. (क) कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १३९ (ख) गीता अ. ५ / १२-११-१०
२. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. १४१ ३. वही, पृ. १४०
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