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सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५६३
गीता प्रतिपादित सकाम और निष्काम कर्म
गीता में भी सकाम और निष्काम कर्म का अन्तर समझाते हुए कहा गया है-यज्ञ, दान, तप या अन्य ऐसे ही कर्म सात्त्विक हों, फलाकांक्षारहित बुद्धि से किये गए हों तो वे निष्काम हैं, किन्तु वे राजस और तामस हों तो सकाम हैं।' सकाम में भी राजस कर्म है तो शुभ हो सकता है और तामस हो तो अशुभ है।
गीता में कहा गया है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित तप (पंचाग्नि आदि) तपते हैं या करते हैं, वे दम्भ और अहंकार से युक्त हैं, और वे कामना, आसक्ति और बलाभिमान से युक्त है।
तप और पंचाचार का अनुष्ठान सकाम न हो, निष्काम हो
दशवैकालिकसूत्र में भी इसी प्रकार के कामनायुक्त तप एवं धर्माचरण का निषेध; और केवल आत्मशुद्धि (निर्जरा) तथा आर्हत् (वीतरागत्व) प्राप्ति के हेतु करने का विधान किया गया है। इसका भी तात्पर्य यह है कि तप, संयम, महाव्रत, यम-नियम आदि किसी की साधना सकाम नहीं होनी चाहिए, वह निष्काम होनी चाहिए।
निष्काम कर्म के लिए सम्यक्त्व सर्वप्रथम आवश्यक
यही कारण है कि जैनदर्शन ने प्रत्येक नियम, व्रत, धर्माचरण, महाव्रत आदि का आचरण करने से पहले सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) का होना अनिवार्य बताया है। सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचारों से रहित होना आवश्यक है। शम (या सम), संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था सम्यग्दर्शन के चिह्न हैं। इन पाँच लक्षणों से युक्त होगा, वह सम्यग्दृष्टि पुरुष पूर्ण श्रद्धा-भक्ति - उत्साह से युक्त होकर तप, संयम, त्याग आदि का मुख्य उद्देश्य समझकर निष्काम बुद्धि से करेगा, तब तो उसका वह तपःकर्म, धर्माचरण, महाव्रतादि पालन देव गुरु- धर्म के प्रति श्रद्धा प्रशस्त रागयुक्त होते हुए भी निष्काम कहलाएगा, परन्तु इहलौकिक- पारलौकिक फलाकांक्षा, फलप्राप्ति, स्वार्थ, लोभ, भय आदि से प्रेरित होगा, वह चाहे दान हो, तप हो, शील हो, सामायिक हो, संयम हो, व्रत नियम हो, त्याग हो, या ज्ञान-दर्शन- चारित्र हो वह सकाम होगा, निष्काम नहीं । *
१. एतान्यपि तु कर्माणि संगे त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ! निश्चितं मतमुत्तमम्॥
२. गीता १८ / २३ - २४-२५
३.
दशवैकालिक अ. ९, उ. ४, सू. ४-५ ४. सम्यक्त्वमूलान्यणुव्रतानि ।
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- गीता १८/६
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