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________________ ५६० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है-“कामनाएँ (काम) दुरतिक्रम हैं, उनका पार पाना दुष्कर है। जीवन (आयुष्य) बढ़ाया नहीं जा सकता।" कामनाएँ सफल होने पर मोह, आसक्ति, रागभाव बढ़ता जाता है और असफल होने पर यह कामकामी (कामभोगों की कामना करने वाला) पुरुष निश्चय ही शोक करता है, विलाप करता है, मर्यादा से भ्रष्ट हो जाता है तथा दुःखी और संतप्त होता है।' दोनों ही स्थितियों में विविध स्वार्थानुरंजित विकल्प उसका पिण्ड नहीं छोड़ते। गीता में सकामकर्मियों की पहचान गीता में बताया गया है कि “जो सकामी पुरुष होते हैं, वे केवल फल-प्राप्ति में ही प्रीति रखते हैं, वे कामात्मा होते हैं, स्वर्ग को ही वे परमश्रेष्ठ मानते हैं। जिनसे जन्म-मरणादिरूप संसार ही फलित होता है, ऐसे भोग और ऐश्वर्यरूप फल-प्राप्ति की विविध क्रियाओं का प्ररूपण करते हैं, अर्थात्-स्वर्गादि विविध कामभोगों (कामनाओं और वासनाओं) में परायण रहते हैं और वेदवादरत वे अविवेकीजन उन्हीं का अपनी चित्ताकर्षक एवं मोहक वाणी में प्रतिपादन करते हैं।"३ सकाम कर्म में कामना से लेकर तृष्णा तक की दौड़ इसका फलितार्थ यह है कि व्यक्ति 'सकाम कम' में 'काम' वासना से लेकर तृष्णा कर दौड़ लगाता रहता है, कदाचित् बाहर से वह शारीरिक चेष्टाओं का त्याग करके बगुले की तरह ध्यान लगाकर बैठ जाए, फिर भी उसके अन्तःकरण-चतुष्टय में फल-सम्बन्धी विविध विकल्पों की उधेड़-बुन होती रहती है। काम्यकर्मों का तथा कर्मफल का त्याग ही कर्मत्याग है तात्पर्य यह है कि बाह्यरूप से कर्म (काय) का त्याग कर देने मात्र से कर्मत्याग या निष्काम कर्म नहीं हो जाता। गीता में स्पष्ट बताया गया है १. "कामा दुरतिक्कम्मा। जीवियं दुप्पडिबूहगं।" "कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ, तिप्पइ, पिट्टइ परितप्पइ।" -आचारांग श्रु. १, अ.२, उ.५ २. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से साभार उद्धृत पृ. १३९-१४० ३. कामात्मानः स्वर्गपरा जन्म कर्म-फलप्रदाम्। क्रिया-विशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति॥ यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ! नान्यदस्तीति वादिनः।। -गीता २/४३-४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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