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________________ काम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण ५५५ शब्दों में कहें तो ‘इस व्यापार के द्वारा अर्थ लाभ हो जाने पर मैं मनमाने भोग भोगूंगा,' इस प्रकार की आकांक्षा या वासना से लेकर तृष्णा तक के क्रम में से किसी भी प्रकार की स्थूल या सूक्ष्म इच्छा से युक्त होकर फलभोगाकांक्षा करना सकाम कर्म है, जबकि पूर्वोक्त किसी भी प्रकार के स्वार्थ या काम से निरपेक्ष-निःस्पृह रहकर केवल लोक संग्रह के लिए या परोपकार लिए किये गये समस्त कर्म निष्काम हैं। दूसरे शब्दों में- फलाकांक्षायुक्त स्वार्थकृत कर्म 'सकाम' कहलाता है और उससे निरपेक्ष दूसरे की प्रसन्नता, परार्थ, परहितार्थ किया हुआ कर्म निष्काम कहलाता है। अन्य दर्शनकार फलाकांक्षा से अयुक्त और युक्त होने के कारण जिसे निष्काम और सकाम कर्म कहते हैं, उसे जैनदर्शन दशम गुणस्थानवर्ती संज्वलन कषाय (मंद कषाय ) से युक्त तथा तीव्र कषाय से युक्त को क्रमशः निष्काम और सकाम कहता है। दोनों का तात्पर्य एक है। भगवद्गीता में सकाम और निष्काम कर्म की व्याख्या भगवद्गीता में निष्काम कर्म पर बहुत जोर दिया गया है। वहाँ निष्काम कर्म को कर्मयोग का प्रारम्भ बताया गया है। गीता में निष्काम कर्म और अकर्म का अन्तर भी स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया गया है। वहाँ योगआरुरुक्षु और योगारूढ़ दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है - समत्वबुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने के इच्छुक मननशील व्यक्ति के लिए योग की प्राप्ति में 'कर्म' - निष्काम भाव से कर्म करने को ही हेतु (कारण) कहा है। और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष के लिए समस्त कामनाओं, वासनाओं, संकल्प-विकल्पों का शमन ही कल्याण का हेतु कहा है। योगारूढ़ वह पुरुष है, जो न तो इन्द्रिय- भोगों में आसक्त होता है, न ही कर्मों में। तथा सर्व-संकल्पों (इच्छाओं) का त्यागी होता है। जैन परिभाषा में उसे वीतराग सयोगी केवली कह सकते हैं। वह क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है। ' निष्काम कर्म और अकर्म में अन्तर निष्काम कर्म और अकर्म में यह अन्तर है कि निष्काम कर्म यद्यपि परोपकार की दृष्टि से किये जाते हैं, तथा व्रत, नियम, तप, त्याग आदि की १. यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ! न ह्यसंन्यस्त संकल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २॥ आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढ़स्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥ यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्म स्वनुषज्यते । सर्व संकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ ४॥ Jain Education International - गीता अ. २ श्लो. २-३-४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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