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कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप
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शुभाशुभ कर्मों के बन्धन से छूटने का उपाय बताते हुए गीताकार कहते हैं-"तू जो कुछ भी कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो हवन करता है, अथवा जो कुछ दान देता है, जो तप करता है, वह सब शुभाशुभकर्म मुझे (परमात्मा को) अर्पित कर दे। अर्थात्-उन सभी कर्मों के प्रति तू अहंकर्तृत्व, ममकार या फलासक्तिभाव मत रख। इस प्रकार के भगवदर्पण से तू संन्यासयोग-युक्त होकर तेरा मन शुभ-अशुभ फल देने वाले कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाएगा और तब तू विमुक्तात्मा होकर मुझे (परमात्मा को) प्राप्त कर लेगा।" इस प्रकार गीता का भी संकेत अध्यात्मपूर्ण जीवन के लिए अशुभकर्म से शुभकर्म की ओर तथा शुभ कर्म से शुद्ध कर्म की ओर बढ़ने का है। जैनदर्शन के समान गीतादर्शन भी यह बताता है कि "पुण्यकर्मों का सम्पादन करने वाले जिन व्यक्तियों के पाप (अशुभ) कर्मों का अन्त हो गया है, वे राग-द्वेषादि द्वन्द्वरूप मोह (कम) मुक्त होकर वे दृढव्रती भक्त (साधक) एकाग्रतापूर्वक मेरी भक्ति करते हैं।'
बौद्धदर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ (शुक्ल) और अशुभ (कृष्ण) कर्म से ऊपर उठकर शुद्ध (अशुक्ल-अकृष्ण) कर्म को प्राप्त करना है। 'सुत्तनिपात' में भगवान् बुद्ध का वचन है-"जो पुण्य-पाप को त्याग कर शान्त (निवृत) हो गया है; इस लोक और परलोक के यथार्थस्वरूप को ज्ञात करके कर्मरज से रहित हो चुका है, जो जन्म-मरण से पर हो चुका है, उस स्थिर श्रमण को स्थितात्मा कहा जाता है।" इसी प्रकार सुत्तनिपात में सभिय परिव्राजक द्वारा बुद्धवन्दना में भी कहा गया है-जिस प्रकार मनोहर पुण्डरीक कमल जल में लेपायमान नहीं होता, इसी प्रकार बुद्ध पुण्य-पाप दोनों में लेपायमान नहीं होते। वस्तुतः बौद्धदर्शन भी जैनदर्शन की तरह शुभाशुभ कर्म से ऊपर उठकर शुद्धकर्म में-स्व-शुद्धस्वरूप में स्थिर होने की बात कहता है।
इसी प्रकार पाश्चात्य आचारदर्शन के अनेक पुरस्कर्ताओं ने भी आध्यात्मिक परिपूर्णता के क्षेत्र में पहुँचने की बात को महत्व दिया है।
-गीता ९/२७
-गीता. ९/२८
. १. (क) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय! तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ (ख) शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। . संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।।
(ग) येषां त्वन्तगतं पापं, जनाना पुण्यकर्मणाम्। ... ते द्वन्द्व-मोह-निर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः। २. (क) सुत्तनिपात ३२/११
(ख) वही, ३२/३८
-गीता ७/२८
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