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________________ कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप ५४७ सावधान होकर समभाव से उन्हें भोगता है, या संक्रमण करके अशुभ को शुभरूप में परिणत कर लेता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि अच्छा कार्य (कर्म) करने वाला यह जानता है कि अच्छे कर्म में भी कुछ न कुछ बुराई का अंश है, और बुराइयों (बुरे फल या संयोग) के मध्य जो देखता है कि कहीं न कहीं अच्छाई है, वही कर्म के शुभाशुभत्व के रहस्य को जानता है और कर्म के शुद्धत्व की ओर दौड़ लगाने के लिए उद्यत रहता है। ' शुद्ध कर्म की व्याख्या जैनकर्मविज्ञान की दृष्टि से शुद्धकर्म से तात्पर्य उस जीवन-व्यवहार से है, जिसमें किसी भी क्रिया का प्रवृत्ति के पीछे राग-द्वेष नहीं होता, व्यक्ति केवल उस क्रिया या प्रवृत्ति का ज्ञाता - द्रष्टा होता है। ऐसा शुद्ध कर्म आत्मा को बन्धन में नहीं डालता। वह अंबन्धक कर्म (अकर्म) है। जैनदर्शन ने साधक का लक्ष्य शुभ-अशुभ अथवा मंगल- अमंगल से ऊपर उठकर शुद्ध कर्म की ओर बढ़ना बताया हैं । मोक्ष प्राप्ति के लिए शुभ और अशुभ (पुण्य और पाप) दोनों को बन्धनकारक एवं हेय बताया है। आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता शुभ - अशुभ से उपर उठकर शुद्धदशा में स्थित होने में है और ऐसा तभी हो सकता है, जब साधक अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध परिणति में स्थिर हो जाता है। जब तक शुभ - अशुभ का विकल्प मन में बना रहेगा, तब तक पूर्णतः शुद्ध अवस्था में स्थिति नहीं हो सकेगी । २ • शुद्ध अवस्था में शुभ कर्म का होना भी अनावश्यक आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- "जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लोहे की बेड़ी के समान बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण होते हैं।" जैन आचार्य दोनों को आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार शुद्ध स्वच्छ वस्त्र के लिए साबुन का लगा होना अनावश्यक है, उसे भी निकालना होता है, उसी प्रकार निर्वाण, मोक्ष या शुद्धात्मदशा में शुभकर्म (पुण्य) का होना भी अनावश्यक है, उसे भी क्षय करके निकालना होता है। १. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्म सिद्धान्त और आधुनिक विज्ञान' लेख से भावांश पृ. ३२१ २. जैनकर्मसिद्धान्त: तुलनात्मक अध्ययन पृ. ४४ ३. समयसार (आचार्य कुन्दकुन्द) १४५-१४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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