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कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप ५३७
जबकि जैनदर्शन ने आशय (अभिप्राय) के साथ-साथ कर्म के बाह्यस्वरूप को भी माना है। बौद्धदर्शन के अनुसार कर्म के शुभाशुभत्व का आधार केवल अभिप्राय को मानने पर भी उसमें प्रकारान्तर से मायाचार गर्भित है; क्योंकि जिसकी मांस खाने की आदत है, वह पुरुष को खली का पिण्ड या बालक को तुम्बा मानकर खाने का अथवा 'हमारे लिये यह मांस नहीं पकाया गया है," इस प्रकार का बहाना बनाकर पंचेन्द्रिय प्राणी के घात को अशुभकर्म (पाप) के बदले शुभ कर्म (पुण्य) कह दें तो कोई आश्चर्य नहीं है और वैसा ही विधान दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन ऐसा मांसाहार कराने वाले को पुण्य अर्जित करने वाला कहकर गुमराह भी किया गया है।
भगवान् महावीर की दृष्टि में किसी भी प्रकार से मांस भक्षण करने वाला पंचेन्द्रिय वध के पाप (अशुभकम) का बन्ध करता है और नरकगामी बनता है। शुभ आशय : किन्तु प्राणिहिंसा के कारण कर्म अशुभ
इसी प्रकार का सूत्रकृतांग सूत्र में तथाकथित हस्तितापसों का मत दिया गया है, वह भी स्थूल दृष्टि से शुभ आशयपूर्ण प्रतीत होने पर भी पंचेन्द्रियवध का घोर पाप (अशुभ) कर्म का बंधक है। हस्तितापसों का मत था कि "हम लोग शेष जीवों की दया के लिए वर्ष भर में बाण से एक महाकाय हाथी को मारकर उसके मांस से साल भर निर्वाह कर लेते हैं।" परन्तु आर्द्रककुमार ने इसका भी भगवान् महावीर की व्यापक अहिंसक दृष्टि से प्रतिवाद करते हुए कहा-“ऐसा गृहस्थ भी दोषरहति (निष्पाप) नहीं माना जाता तो साधुव्रती होकर जो वर्षभर में एक प्राणी को मारता है, वह तो सर्वथा पापी (अशुभकर्म करने वाला) एवं अनार्य कहा जाता है।" धर्मग्रन्यविहित कर्म : किन्तु अमंगलकारी होने से अशुभ
आशय यह है कि एकान्त शुभ अभिप्राय भी कर्म के शुभत्व का परिचायक नहीं होता, उसके साथ उस कर्म का मंगल-अमंगलरूप भी देखा जाना आवश्यक है। उससे अहिंसादि किसी व्रत या सम्यक्त्व को आँच तो नहीं आती, यह भी देखना चाहिए। प्रत्येक लौकिक रीति-रिवाज या प्रथा
१. बर्मा आदि बौद्ध देशों में मांस की दूकानों पर प्रायः इस प्रकार का साइनबोर्ड लगा
रहता है-'तुम्हारे लिये यह बकरा नहीं काटा गया है,' या “यह मास तुम्हारे लिए
नहीं पकाया गया है।" २. "चउहि ठाणेहिं जीवा नेरइयत्ताए कम्म पगरेंति, तं..... महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहेण, कुणिमाहारेणं।"
-स्थानांगसूत्र ४/४ ३. सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. २, अ. ६, गा. ५२,५३,५४
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