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________________ कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप कर्मजलपरिपूर्ण संसार-समुद्र में तीन प्रकार के नाविक और नौका कर्मविज्ञान इतना गूढ, दुरूह तथा अर्थों और रहस्यों से भरा है कि सहसा उसका आकलन और हृदयंगम कर लेना आसान नहीं है। जिस प्रकार जल से परिपूर्ण महासमुद्र में ज्वार-भाटे आते रहते हैं। उत्ताल तरंगें कभी-कभी बांसों तक उछलकर मानो आसमान को छुने लगती हैं। कभी वे अत्यन्त धीमी गति से उछलती हैं और कभी अतीव तीव्र गति से। कभी मध्यम गति से उछलती है और कभी-कभी एकदम शान्त और सुस्थिर हो जाती हैं, उसी प्रकार विविध कर्मरूपी जल से परिपूर्ण संसार-समुद्र में भी आस्रव, बन्ध और संवर-निर्जरा के ज्वार-भाटे आते रहते हैं। कर्म-जल की महातरंगें भी प्रतिक्षण विविधरूप में तीव्र-मन्द-मध्यम गति से उछलती रहती हैं और कभी वे शान्त और सुस्थिर भी हो जाती हैं। संसारस्थ जीव को सदैव इस महासमुद्र में तब तक रहना है, जब तक वह इस संसार-सागर से पार न हो जाए। जिस प्रकार समुद्र पार करने के लिए नौका का आश्रय लिया जाता है। परन्तु वह नौका (जलयान) जर्जर एवं छिद्रवाली हो, अथवा अच्छी हालत में न हो, नाविक चलाने में कुशल न हो, उत्ताल तरंगें उछल रही हों, उस समय कुशलतापूर्वक नौका की सुरक्षा न कर पाता हो, वह नौका स्वयं तो डूबती ही है, नाविक को भी ले डूबती है। इसी प्रकार नाविक यदि नौका में अर्धकुशल हो, वह समुद्री तूफानों और अन्धड़ों से तो नाव को बचा लेता है, किन्तु नौका अल्प छिद्रयुक्त हो तो अधबीच में ही उसके डूबने की आशंका बनी रहती है। परन्तु जो नाविक बाहोश और नौकाचालन में पूर्ण कुशल हो, नौका भी उसकी छिद्ररहित एवं सुदृढ़ हो, वह समुद्र में चाहे जितने ज्वार आएँ, तूफान और अंधड़ आएँ, अपनी नौका को सकुशल समुद्र के पार तक ले जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसी तथ्य को अनावृत करते हुए कहा गया ५२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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