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________________ ५२४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . किये जाते हैं तो, ये और इस प्रकार के अन्य कर्म भी गीता की दृष्टि में 'कर्म' हैं। इन्हें आगे चलकर गीता में राजस कर्म भी कहा गया है।' ___गीता की दृष्टि में 'विकर्म' वे हिंसादि निषिद्ध अशुभ (पाप) कर्म है, जो दम्भ, दर्प, अभिमान, छल, ठगी उत्कट क्रोध, वासना, अशुभ फलेच्छा, निदान (नियाणा) आदि से प्रेरित होकर किये जाते हैं। ऐसे पापकर्म निष्प्रयोजन ही मन-वचन-काया से स्व-पर को केवल पीड़ित करने वाले होते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरों को मारना, लूटना, ठगना, दूसरे का धनादि, हड़पना, परस्पर फूट डालना, हिंसा भड़काना, आग लगाना, हत्या, दंगा, शिकार करना आदि पापकर्म भी विकर्म हैं, जो स्वपर के लिए हानिकारक हैं। सामान्यतया हिंसा, असत्य, चोरी, ठगी, बलात्कार आदि निषिद्ध कर्म या पापकर्म मात्र ही 'विकर्म' समझे जाते हैं। जैनदृष्टि से रौद्रध्यान (हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेनानुबन्धी और संरक्षणानुबन्धी भयंकर ध्यान) से प्रेरित पापकर्म गीता में विकर्म कहे गए हैं। इसके अतिरिक्त शुभ कर्म समझे जाने वाले यज्ञ, दान, तप, त्याग, व्रत, नियम, श्रद्धाभक्ति आदि कार्य भी परिणाम (नतीजा) हानि तथा हिंसादि का विचार किये बिना मूढतावश हठ-मोह-पूर्वक दूसरों का अनिष्ट करने तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाने की दृष्टि से किये जाते हैं, तो वे तामस कोटि के कर्म विकर्म हो जाते हैं। परन्तु कभी-कभी बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म भी कर्ता की बुद्धि अगर वार्थ, लोभ, आसक्ति आदि से लिप्त नहीं है, न ही अहंकार है तो शुद्ध भाव से अथवा किसी को १. (क) कर्मणो ह्यपि बोधव्यं, बोधव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोधव्यं, गहना कर्मणोगतिः।। कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्मयः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु, स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥ -गीता अ. ४ श्लो. १७-१८ (ख) स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्। सहजं कर्म कौन्तेय! सदोषमपि न त्यजेत्॥ -वही, १८/४७-४८ (ग) यत्तु फलेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः। क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्। -वही १८/२४ (घ) भगवद्गीता अ. २ श्लो. ४१, ४२, ४३ २. (क) अनुबन्ध क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ -वही, १८/२५ (ख) रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। हर्ष शोकान्वित कर्ता राजसः परिकीर्तितः। (ग) अयुक्त प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः। विषादीदीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥ -गीता १८/२७-२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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