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५२० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
कर्म और विकर्म में अन्तर ____ पहले यह बताया गया था कि साधक जब तक वीतराग-अवस्था (कषायमुक्त रागद्वेषरहित दशा) को प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक उसकी प्रवृत्तियों में प्रमाद एवं कषायादियुक्त योग रहेगा, और उसकी सक्रियता कर्मबन्धकारक होगी ही। किन्तु ये दोनों कर्म साम्परायिक क्रिया से जनित होते हुए भी तीव्रकषाय एवं मन्दकषाय, अयतना और यतना, ज्ञात और अज्ञात, शुभभाव और अशुभ भाव, अशुभराग और शुभराग, तथा प्रमाद की तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से उसी कर्मबन्ध के दो विभाग हो जाते हैं; एक शुभबन्ध' और दूसरा अशुभबन्ध।
जो मनुष्य अभी छद्मस्थ है, पूर्णतः कषायमुक्त नहीं है, जिसे वीतरागदशा प्राप्त नहीं हुई है उसके द्वारा शुभभावों से जो भी दान, शील, तप, भाव, परोपकार, व्रतनियम-पालन आदि की क्रियाएँ होती हैं, वे सब क्रियाएँ शुभ आस्रव एवं शुभबन्ध की कारण होने से उन्हें कर्म (पुण्यकर्म) कहा जाता है। इसी प्रकार जो क्रियाएँ अशुभ आस्रव एवं अशुभबन्ध की कारण हैं, उन्हें 'विकर्म (पापकर्म) कहा जाता है। यतनाशील साधक की क्रिया, पापकर्मबन्धक नहीं होती
दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि "जो छद्मस्थ साधक अप्रमत्त होकर यतनापूर्वक सावधानी से चलना, उठना, बैठना, सोना, जागना, खाना-पीना, बोलना आदि कोई भी क्रिया करता है, तो उसकी वह क्रिया पापकर्मबन्धक नहीं होती।"२ इसका फलितार्थ यह है कि साधनात्मक क्रियाएँ यतनापूर्वक करने से पापकर्म का बन्ध नहीं होता। या तो उन क्रियाओं से पुण्यकर्म का बन्ध होगा, या फिर उनसे कर्म का क्षय (निर्जरा) होगा।
इसी शास्त्र में आगे कहा गया है-"जो साधक सर्वभूतात्मभूत (समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य मानता) है, जो प्राणिमात्र को समदृष्टि से १. (क) तीव्र-मन्द-ज्ञाता-ज्ञात-भाव-वीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तविशेषः ।
-तत्त्वार्थसूत्र ६/७ (ख) तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) (पं. सुखलाल जी) में विशेष व्याख्या देखें, पृ. १५३ २. (क) जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए।
जयं भुजतो भासंतो पावकम्मं न बंधई।। (ख) सव्वभूयप्पभूयस्स सम्म भूयाइ पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ॥
-दशवैकालिक सूत्र अ. ४ गा. ८-९
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