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________________ ४९४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) दक्षिण भारत के मनुष्यों के हाथीपगा (पैर का शोथ) रोग अधिकांश रूप में पाया जाता है, परन्तु यह रोग उन्हीं के होता है, जिनके असातावेदनीय का बन्ध होता है, तथा उस कर्म विपाक से प्रतिकूल संवेदन होता है - क्षेत्रीय नोकर्मवश, उसके असातावेदनीय कर्म का उदय होता है। जिनके असातावेदनीय कर्म नहीं बंधा हुआ है, उसको यह भयंकर रोग नहीं होता, न ही असातावेदनीय कर्म का नया बन्ध होता है। ' कर्म : मुख्य निमित्तकारण, नोकर्म: गौण निमित्तकारण निष्कर्ष यह है कि कर्ममर्मज्ञ मनीषियों ने दो प्रकार के निमित्तकारण माने हैं- कर्म और नोकर्म । इन दोनों के स्वभाव और कार्य में अन्तर स्पष्ट है । यही कारण है कि इनमें कर्म मुख्य निमित्तकारण है, और नोकर्म गौण निमित्तकारण। दोनों एक दूसरे को दबाते नहीं, किन्तु नोकर्म कर्मोदय में सहयक बन जाते हैं। किस-किस कर्म के कौन-कौन से नोकर्म हैं ? आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने नोकर्म की मीमांसा करते हुए कहा - "वस्त्र ज्ञानावरणीय कर्म का, प्रतीहार दर्शनावरणीय कर्म का, शहद लपेटी तलवार वेदनीयकर्म का, मद्य मोहनीय कर्म का आहार आयुकर्म का, शरीर नामकर्म का, उच्च-नीच कुल गोत्रकर्म का, तथा भण्डारी. अन्तरायकर्म का नोकर्म है। " इसी तथ्य को विशेष स्पष्ट करने की दृष्टि से वे आगे कहते हैं-. मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का व्याघात करने वाले वस्त्रादि पदार्थ मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के नोकर्म हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान का व्याघात करने वाले संक्लेशकर पदार्थ अवधिज्ञानावरणीय और मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म के नोकर्म हैं। भैंस का दही आदि पदार्थ निद्रादि पंचरूप दर्शनावरणीय कर्मों के नोकर्म ( ईषत् - कर्म) हैं। इष्टअनिष्ट अन्न-पानादि सातावेदनीय तथा असातावेदनीय कर्मों के नोकर्म हैं, षडायतन सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का, अनायतन मिथ्यात्व का, बैडौल पुत्र हास्य का, सुपुत्र रति का, इष्ट-वियोग तथा अनिष्टसंयोग अरति का और मृतपुत्रादि शोक का नोकर्म है।"२ कर्म और नोकर्म के कार्यों का विश्लेषण इसका निष्कर्ष यह है कि कर्म का कार्य है-उस-उस कर्म के उदय से जीव के विभिन्न प्रकार के अज्ञान, अदर्शन, सुख-दुःख, मिथ्यात्व तथा · १. कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश उद्धृत पृ. ९२ २. (क) महाबंध पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. २२ (ख) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) ( आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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