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कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर
कर्म : शब्द एक : अर्थ और आशय अनेक
कर्म - शब्द ऐसा विलक्षण है कि वह अपने में अनेक अर्थों को समेटे हुए है। शब्द की एक सीमा होती है, शब्द में अनेक अर्थ और नाना आशय सन्निहित होते हैं, उसके अनेक अर्थों और आशयों को सन्दर्भ से ही जाना जा सकता है। सन्दर्भ का पता भी उस शब्द के व्यवहार या प्रयोग से लगता है। कर्मशब्द जब-जब प्रयुक्त होता है, तब-तब वह अपने व्यक्तित्व एवं व्यापकत्व की छटा दिखलाता है। कर्मशब्द का सामान्यतया अर्थ होता है - कार्य, क्रिया, कर्तव्य या परिणति । कार्य या कर्तव्य की अपनी कोई आकृति नहीं है, किन्तु जब वह अध्यात्म के क्षेत्र में, देह में विदेह को प्राप्त करने के आशय से प्रयुक्त होता है, तो उसकी एक ठोस आकृति होती है ! जैनकर्म-विज्ञान-मर्मज्ञों ने उसे लक्षण के सांचे में इस तरह व्यवस्थित रूप से ढाला है कि कर्म-विज्ञान का विद्यार्थी या जिज्ञासु साधक उसे शीघ्र ही पहचान जाएगा कि यह कर्म है, विकर्म है, अकर्म हैं, अथवा नोकर्म है; क्योंकि जैन दर्शन में कर्मशब्द गणितीय है। मनोविज्ञान, भौतिकविज्ञान एवं योग-दर्शन आदि सभी दृष्टियों से वह नपा- तुला व्यवस्थित और तर्कसंगत है। राजहंस जैसे अपनी चोंच से दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है, उसी प्रकार कर्म - वैज्ञानिकों ने अपनी विशिष्ट ज्ञानचंचु से कर्म और नोकर्म का पृथक्करण कर दिया है।
कर्म एवं द्विविधद्रव्यवर्गणा: कर्म-वर्गणा और नोकर्मवर्गणा
“समान गुणयुक्त सूक्ष्म अविच्छेद अविभागी समूह को वर्गणा कहते हैं ।” गोम्मटसार, षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में ऐसी कुल २३ वर्गणाएँ मानी गई हैं।' इन तेईस वर्गणाओं में कार्मण वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा
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अणु, संख्यताणु, असंख्यताणु, अनन्ताणु, आहार, अग्राह्य, तैजस, अग्राह्य, भाषा, . अग्राह्य, मनो, अग्राह्य, कार्मण, ध्रुव, सान्तर - निरन्तर, शून्य, प्रत्येक शरीर, ध्रुवशून्य, बादरनिगोद, शून्य, सूक्ष्मनिगोद नभो और महास्कन्ध-ये पुद्गल वर्गणा के २३ भेद हैं।
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- धवला पु. १४ ख ५ भा. ६ सू. ७१ पृ. ५२ - गोम्मटसार जीवकाण्ड ५९४-५९५
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