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________________ कर्म : मूर्तरूप या अमूर्त आत्म-गुणरूप ? ४६१ को मूर्त माना जाता है, उसी प्रकार कर्म के कार्य औदारिक आदि शरीरों को मूर्तिक देखकर उनका कारणभूत कर्म भी मूर्तिक सिद्ध हो जाता है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो अमूर्त पदार्थों से मूर्त पदार्थों की उत्पत्ति माननी होगी, जो सिद्धान्तविरुद्ध है, क्योंकि अमूर्त कारणों से मूर्त कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती। . बौद्धदर्शन ने कर्म को वासना नाम से स्वीकार किया है, परन्तु वासना अमूर्त होने से वह अमूर्त आकाश की तरह जीवों पर अनुग्रह या उपघात नहीं कर सकती । अतः यह कथन युक्तियुक्त नहीं है। इसी प्रकार वेदान्तदर्शन ने अविद्या नाम से कर्म को स्वीकार किया है, वह भी उचित नहीं; क्योंकि उनके सिद्धान्तानुसार अविद्या असत् है, वह आकाशकुसुमवत् जीव का कुछ भी बनाने-बिगाड़ने में समर्थ नहीं हो सकती । २ - तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि "कार्मण शरीर पौद्गलिक है, क्योंकि वह मूर्तिमान् पदार्थों के सम्बन्ध से फल देता है। जिस प्रकार जलादि पदार्थों के संसर्ग से पकने वाले धान्य पौद्गलिक (मूत्त) होते हैं। उसी प्रकार कार्मण शरीररूप कर्म भी गुड़, कांटा आदि इष्ट-अनिष्ट मूर्त पदार्थों के सम्पर्क से फल प्रदान करता है। इससे भी कर्म पौद्गलिक-मूर्त सिद्ध होता है। तत्त्वार्थ वार्तिक में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया आप्तवचन से कर्म मूर्तरूप सिद्ध होता है ... आगमों और कर्मग्रन्थों आदि से भी कर्म मूर्त सिद्ध होता है। समयसार में कहा गया है-"आठों प्रकार के कर्म पुद्गलस्वरूप हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।" नियमसार में भी कहा गया है-"आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता भोक्ता है, यह सिर्फ व्यवहार-दृष्टि है।" पुद्गल मूर्तिक है, इसलिए कर्म भी मूर्तिक सिद्ध होते हैं।' १. (क) विशेषावश्यक भाष्य गणधरवाद गा. १६२५ (ख) औदारिकादिकार्याणां कारणं कर्म मूर्तिमत्। . न ह्यमूर्तेन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते॥-तत्त्वार्थसार ५/१५ २. देखें-बंधविहाणे मूलपयडिबंधो ग्रंथ ९ (प्रेम प्रभा टीका) पृ. १६ ३. (क) तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ५/१९ पृ. २८५ . (ख) तत्त्वार्थ वार्तिक ५/१९/१९ ४. (क) समयसार गा. ४५ (ख) कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गल-कम्मस्स होदि ववहारो। -नियमसार १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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