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कर्म : मूर्तरूप या अमूर्त आत्म- गुणरूप ?
४५९ उसमें बलाधान होता है, अर्थात् स्निग्धता आती है; जैसे घड़े आदि पर तेल आदि बाह्य वस्तु का विलेपन करने से उसमें बलाधान हो जाता है, वैसे ही वनिता, चन्दन, माला आदि बाह्य वस्तुओं के संसर्ग से कर्म में भी बलाधान होता है। इसलिए घट के समान कर्म भी मूर्त है ।
आत्मा आदि (अमूर्त) से भिन्न होने से कर्म दूध की तरह परिणामी है, इसलिए मूर्त है। जो परिणामी होता है, वह मूर्त होता है। जैसे - दूध आत्मा' से भिन्न और परिणामी है, इस कारण मूर्त है, वैसे ही कर्म भी मूर्त है। कर्म परिणामी है, क्योंकि उसका कार्य शरीरादि परिणामी है। जिसका कार्य परिणाम होता है, वह स्वयं भी परिणामी होता है। जैसे- दूध का कार्य दही परिणामी है, क्योंकि दही छाछ आदि में परिणत हो जाता है। अतः दही के परिणामी होने से उसका कारणरूप दूध भी परिणामी है, वैसे कर्म के कार्य शरीर आदि के परिणामी (परिवर्तनशील - विकारी) होने से उनके कारणरूप कर्म भी परिणामी हैं । परिणामी होने से कर्म मूर्त रूप हैं ।
कर्म को मूर्त सिद्ध करने के लिए एक युक्ति यह भी है - कर्म का परिणाम अमूर्त आत्मा के परिणाम से भिन्न होता है। अतः परिणाम की भिन्नता से आत्मा और कर्म (पुद्गल) इन दोनों द्रव्यों में विपरीतता एवं विभिन्नता सिद्ध होती है। अर्थात् कर्म अमूर्त आत्मा से विपरीत मूर्तस्वभाव वाले हैं।
अन्य जैनदार्शनिक ग्रन्थों में कर्म की मूर्तत्व सिद्धि
'पंचास्तिकाय' में कर्मों को मूर्त (पौद्गलिक) सिद्ध करते हुए लिखा है - "जीव कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख के हेतुरूप इन्द्रिय विषयों का मूर्त इन्द्रियों के द्वारा उपभोग करता है; इस कारण कर्म मूर्त हैं। " आप्त परीक्षा भी इसी का समर्थन किया है।
स्पष्ट शब्दों में कहें तो - 'इन्द्रियों के विषय - स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द, ये मूर्त हैं, और उनका उपभोग करने वाली इन्द्रियाँ भी मूर्त हैं। उनसे प्राप्त होने वाला सुख - दुःख भी मूर्त है। अतः उनके कारणभूत कर्म . भी मूर्त हैं। *
१. विशेषावश्यक भाष्य के अन्तर्गत गणधरवाद (सं. पं. दलसुख मालवणिया ) गा. १६२६-२७
२. (क) वही (सं. पं. दलसुख मालवणिया) गा. १६२७-२८
(ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से, पृ. १९३
३. (क) जम्हा कम्मस्स फलं विसय, फासेहिं भुंजदे नियदं । जीवेण सुहं दुक्खं, तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ।। (ख) आप्त परीक्षा श्लो. ११५
(ग) कर्म : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन (उपा. देवेन्द्रमुनि) से पृ. २५
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- पंचास्तिकाय गा. १३३
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