SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म : मूर्तरूप या अमूर्त आत्म-गुणरूप ? ४५५ टेलीप्रिंटर, टेलीफोन आदि समस्त दूर-संचार प्रणालियाँ अदृश्य एवं अव्यक्त होते हुए उनके द्वारा होने वाले कार्यों को देखकर उनके अस्तित्व और स्वरूप को मानते हैं। फिर सारा प्राणिजगत कर्म के द्वारा संचालित, रचित और व्यवस्थित होने पर भी एवं कर्म के द्वारा होने वाले कार्य प्रत्यक्ष दश्यमान होने पर भी कर्म को मूर्त-पुद्गलरूप, भौतिकरूप, प्रत्यक्षवत् न मानने का क्या कारण है ? - गणधरवाद में कर्म के मूर्त-अमूर्त होने की चर्चा 'गणधरवाद' में भावी गणधर अग्निभूति ने भंगवान् महावीर के समक्ष यह चर्चा उठाई है। उसका सार यह है कि “कर्म अदृष्ट है, अर्थात्-चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देता, ऐसे अदृष्टफल वाले कर्म को क्यों माना जाए? अदृष्ट (कम) फल-प्राप्ति के लिए दानादि क्रिया करने को शायद ही कोई व्यक्ति तैयार हो। इसलिए जीव की सभी क्रियाओं का फल दृष्ट ही मानना चाहिए। अधिकांश व्यक्ति यश आदि दृष्ट फल की प्राप्ति के लिए दानादि क्रिया करते हैं।" इसका निराकरण करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-कृषि, व्यापार आदि क्रियाओं का फल अदृष्ट है, फिर भी लोग करते हैं, और उन्हें उनका फल अवश्य मिलता है। जो लोग अधर्म को अदृष्ट मानकर अशुभ क्रियाएँ करते हैं, उन्हें उनका फल (वे चाहें या न चाहे) मिले बिना नहीं रहता। . . अतः शुभ या अशुभ क्रियाओं का फल कर्म के अदृष्ट होने पर भी मिलता ही है। अन्यथा, इस संसार में अनन्त संसारी जीवों की सत्ता ही सम्भव नहीं है; क्योंकि अदृष्ट कर्म के अभाव में सभी पापी अनायास ही मुक्त हो जाएँगे और जो लोग अदृष्ट शुभकर्म को मानकर दानादि क्रियाएँ करते होंगे, उनके लिए यह क्लेशबहुल संसार रह जाएगा। इससे सारे संसार में अराजकता एवं अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी। यद्यपि अदृष्ट (कम) के अनिष्टरूप फल की प्राप्ति के लिए इच्छापूर्वकं कोई भी जीव क्रिया नहीं करना चाहता, फिर भी इस संसार में हिंसादि अशुभ क्रिया करने वाले अत्यधिक लोग अनिष्टफल भोगते नजर आते हैं। अतः मानना चाहिए कि प्रत्येक क्रिया का अदृष्ट (कम) फल होता ही है। इस प्रकार अदृष्ट (कम) के शुभाशुभ फल-रूप कार्य को देखकर उसके कारण को अवश्य मानना चाहिए। १. देखिये-विशेषावश्यक भाष्य के अन्तर्गत गणधरवाद (अनुवादक सम्पादक-पं. ... दलसुखभाई मालवणिया) से पृ. ३७-३८ गा. १६१९,१६२० २. वही, पृ. ३८ गा. १६२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy