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क्या कर्म महाशक्तिरूप है ? ४४९
चाहे जो कुछ कर दे। कर्मशक्ति प्रबल होती है चेतन का संयोग पाकर
(कर्म में स्वयं में बिना कारण किसी को सुख-दुःख आदि प्रदान करने की शक्ति नहीं है। कर्म में वह शक्ति चेतना द्वारा प्रदत्त होती है। रागद्वेषादि या कषाययुक्त चेतन का संयोग पाकर आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है। फलतः जैसे केमरा आकृति को, रेडियो ध्वनि को और चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींच लेता है वैसे ही कषायादि युक्त आत्मा कर्मवर्गणा के पुद्गलों को खींच लेता है। कर्मपुद्गगल आकृष्ट होकर चिपक जाते हैं। इस प्रकार कर्म की शक्ति बलवत्तर हो जाती है।)
आत्मा के चैतन्य-स्वभाव का स्वतंत्र और पृथक् अस्तित्व ही कर्म पर सर्वप्रथम अंकुश है। आत्मा का स्वतंत्र स्वभाव है, वह चेतनाशील तत्त्व कभी अपने स्वभाव को तोड़ने या नष्ट होने नहीं देता। यही कारण है, कर्म की शक्ति आत्मा पर चाहे जितना प्रभाव डाले, किन्तु वह उस पर एकछत्र शासन नहीं कर सकती। जब आत्मा सभान होकर अपने सोये हुए शुद्ध चैतन्य स्वभाव को जगा लेता है, तब कर्म की सत्ता ही डगमगा जाती है। कितना ही घना अन्धकार हो, प्रकाश के आते ही वह भाग जाता है। ज्यों ही आत्म-चेतना जाग जाती है, कर्म स्वतः समाप्त होने लग जाते हैं। कर्म तभी तक टिकता है, जब तक आत्मा के अपने स्वरूप और स्वभाव का जागरण नहीं होता।
कर्मविज्ञान मर्मज्ञों के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने मुक्ति-तर्क-पुरस्सर उत्तर दिया-यथार्थ में आत्मा की शक्ति के आगे कर्म की शक्ति कुछ नहीं है। यदि आत्मा को तेजोमय, ओजपूर्ण और सभान बना लेया जाए तथा आत्मा को अपनी शक्ति का पूर्णतः ज्ञान-भान हो जाए, अपनी शक्ति पर उसे दृढ़ श्रद्धा एवं सच्ची निष्ठा हो, तो आत्मा में बाह्य कर्मों पर नियंत्रण करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। आत्मा में अन्तर्विवेक का यह प्रकाश जगमगा उठे कि "मैंने ही मकड़ी की तरह कर्मों का जाल बछाया है। मेरी ही अज्ञानजनित भूलों, त्रुटियों और मोहमूलक भ्रान्तियों
कारण यह कर्म का पसारा है।" यदि आत्मा आत्मजागृति की गहरी रंगड़ाई लेकर उठ खड़ा हो एवं अपनी विरोधी कषायादि शक्तियों और र्मों से लड़ने के लिए उद्यत हो जाए तो कर्मजाल के छिन्न-भिन्न होते देर न
. (क) कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेश मुनि) से पृ. १८ (ख) कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से सार संक्षिप्त पृ. १०२ कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से सारांश पृ. १०२ ।।
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