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________________ क्या कर्म महाशक्तिरूप है ? ४४७ कर्म और आत्मा दोनों में प्रबल शक्तिमान् कौन ? प्रश्न होता है - कर्म में जिस प्रकार अनन्त शक्ति है, उसी प्रकार आत्मा में भी तो अनन्त शक्ति है। दोनों समान शक्ति वाले हैं, फिर क्या कारण है कि कर्म आत्मा की शक्ति को दबा देता है, आत्मा के स्वभाव और गुणों पर हावी हो जाता है ? क्या आत्मशक्ति कर्मशक्ति से टक्कर नहीं ले सकती ?१ इसका समाधान यह है कि निश्चयदृष्टि से आत्मा में अनन्त शक्ति है; वे शक्तियाँ दो प्रकार की हैं - (१) लब्धिवीर्य (योग्यतात्मक शक्ति) और (२) करणवीर्य (क्रियात्मक शक्ति) । वर्तमान में संसारी आत्मा में योग्यतात्मक शक्ति तो है लेकिन क्रियात्मक शक्ति उतनी प्रकट नहीं हो सकी। इसीलिए व्यवहारनय से देखें तो वर्तमान में आत्मा की अनन्त शक्ति बाधित है, अवरुद्ध है, आवृत है, दबी हुई है, वह पूर्णरूप से विकसित नहीं है। आत्मा की शक्ति पूर्णरूप से विकसित होने पर ही अनन्त होती है। ) इस कारण आत्मा प्रारम्भ में अल्पशक्तिमान् होता है, किन्तु धीरेधीरे मनुष्यजन्म पाकर जब अपनी उन सुषुप्त, बाधित या आवृत शक्तियों को जगाता और विकसित करता है, और एक दिन उन शक्तियों की परिपूर्णता तक पहुँच जाता है, तब वह कर्मशक्ति को, चाहे वह कितनी ही प्रबल हो, पछाड़ देता है। परन्तु जब तक अपनी अनन्त शक्ति को परिपूर्ण विकसित नहीं कर लेता, तब तक वह अल्पशक्तिमान् होता है, उस दौरान कर्मशक्ति उसे बार-बार दबा सकती है, उसे बधित और पराजित कर सकती है। समयसार में कहा गया है- जहाँ तक जीव की निर्बलता है, वहाँ तक कर्म का जोर चलता है। कर्म जीव को पराभूत कर देते हैं। यह निश्चित समझ लेना चाहिए कि आत्मा की परिपूर्ण विकसित अनन्त शक्ति कर्म की अनन्त शक्ति से कहीं अधिक प्रबल होती है। ' ) जैसे - दो मनुष्यों, दो घोड़ों, दो हाथियों की बलवत्ता में अन्तर या तारतम्य होता है, उसी प्रकार कर्म और आत्मा इन दोनों की अनन्तता में अन्तर या तारतम्य होता है। अर्थात् - एक अनन्त महाबली और दूसरा अल्पबली या दुर्बल हो सकता है। जब आत्मा बलवान् होता है, तो उसके सामने कर्म की शक्ति नगण्य हो जाती है और जब कर्म प्रबल होता है, उसके आगे आत्मा को झुकना-दबना पड़ता है। १. धर्म और दर्शन ( उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) से सारांश पृ. ४६. २. (क) आत्म-तत्त्व विचार (श्री विजयलक्ष्मण सूरी जी) से सारांश पृ. २८० (ख) समयसार ३१७/क- १९८ (पं. जयचंद) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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