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- क्या कर्म महाशक्तिरूप है ? ४४५ मौहरों की थैली रख दी। ग्वाला बोला-"मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बतलाइए।" ब्राह्मण ने उसे कहा-"मैं तुम्हें जो आदमी बताऊँ, उसकी दोनों आँखें गुलेल से फोड़ दो।" ब्राह्मण के बताये अनुसार ग्वाले ने ब्रह्मदत्त की दोनों आँखें फोड़ दीं। ग्वाला निरफ्तार कर लिया गया। उसने सारे षड्यंत्र का भंडाफोड़ कर दिया।
फलतः ब्रह्मदत्त के आदेश से प्रतिदिन थाल भर कर ब्राह्मणों की आँखें निकाल कर उसके समक्ष प्रस्तुत की जातीं और वह (ब्रह्मदत्त) उन्हें अपने हाथों से स्पर्श करके मसल कर आनन्द का अनुभव करता था। १६ वर्ष वह जीवित रहा, तब तक यह नित्य क्रम चलता रहा। इस घोर क्रूरतम कर्म के फलस्वरूप अन्धा बना हुआ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरकर सातवें नरक का अतिथि बना।
यह था कर्मशक्ति का अद्भुत खेल, जिसने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती जैसे को पूर्वकृत दुष्कर्मों के फलस्वरूप अन्धा बनाया, और अन्धत्व-प्राप्ति के पश्चात् किये हुए घोरतम क्रूरकर्मों के फलस्वरूप सप्तम नरक की यातना भोगने के लिए बाध्य कर दिया। कर्मशक्ति के कारण ही विभिन्न गतियो-योनियों में परिभ्रमण
जिस प्रकार फुटबाल के मैदान में फुटबाल (दड़ा) कभी इधर कभी उधर ठोकरें खाता फिरता है, वैसे ही यह जीव भी कर्मों से बँधा हुआ संसार की क्रीड़ाभूमि में अनादिकाल से ठोकरें खाता चला आ रहा है। कर्मों के कारण कभी तिर्यंचगति में जाकर शेर, बाघ, सांप, बिच्छू आदि पशु की, और कभी पक्षी की, और कीड़े-मकौड़े आदि कीट-पंतगों की विविध अवस्थाएँ प्राप्त करता है। कभी मनुष्यगति में और कभी देव गति में भी कृतकर्मों के अनुसार जीव जाता है। और कभी नरक के भीषण दुःखों की ज्वालाओं में जलता रहता है।
आशय यह है कि कर्मरूपी महाबली जीव को अपने-अपने कर्मानुसार संसार के स्वर्ग, नरक, मनुष्य और तिर्यंच सभी स्थानों की सैर कराता है। इस दृष्टि से यह कहना अधिक संगत है कि जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष का परिणाम पुनः बीज रूप में प्रकट होता है, इसी प्रकार कर्म १. आत्म-तत्त्व विचार (विजयलक्ष्मणसूरी जी म.) से सारांश पृ. २८३-२८४ १. देखिये उत्तराध्ययन में-एगया देवलोएसु नरएसु वि एगया।
एगया आसुर काय, आहाकम्मेहि गच्छई।। एगया खत्तिओ होइ, तओ चांडाल वुक्कसो। तओ कीडपयंगो य तओ कुंथु-पिवीलिया॥
-उत्तराध्ययन अ. ३/३-४ ।
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