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________________ आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक २३ रथ संचालित होता है, उसी प्रकार जीवित शरीर का संचालक, जिसकी * प्रेरणा एवं इच्छा से शरीर संचालित होता है, कोई न कोई होना चाहिए। जीवित शरीर का वह संचालक (ज्ञानादिक गुणमय) आत्मा ही है । " ३६. उपादान कारण के रूप में आत्मा की सिद्धि-ज्ञान, सुख, शक्ति आदि कार्यों का कोई न कोई उपादान कारण अवश्य है, क्योंकि ये कार्य हैं। जो कार्य होता है, उसका उपादान कारण अवश्य होता है। जैसे -घट रूप कार्य का उपादान कारण मिट्टी है; उसी प्रकार ज्ञान, सुख आदि कार्य का जो उपादान कारण है, वही आत्मा है। ३७. मन के प्रेरक के रूप में आत्मा तत्त्व की सिद्धि-नियत कार्यों की ओर मन की प्रवृत्ति को देखते हुए सिद्ध होता है, कोई उसका प्रेरक तत्त्व अवश्य है। मन को जो प्रेरित करता है, वही आत्मा है। ' ३८. आगम प्रमाण से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि - सर्वज्ञ आप्त पुरुषों द्वारा प्रणीत या उपदिष्ट वचन आगम कहलाता है। आप्त पुरुष सर्वज्ञ एवं सर्वसंशयोच्छेदक तथा सत्यवादी होता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है - सभी दिशाओं और अनुदिशाओं से जो अनुसंचरण करता है, वही मैं (आत्मा) हूँ। आचार्य विद्यानन्द ने आगम से आत्मा की सत्ता यों सिद्ध की है-आप्त प्रणीत आगम से भी जीव है, यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है।" ३९. अर्थापत्ति प्रमाण से आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि - स्याद्वादसिद्धि में बताया गया है कि धर्मादि कार्य की सिद्धि होने से उनका कर्त्ता भी सिद्ध होता है। धर्मादि से सुख- रूप परिणाम (अनुभव) दिखाई देते हैं, इसलिए धर्मादि का कोई' कर्त्ता अवश्य होना चाहिए। धर्मादि का कर्त्ता आत्मा है। इस प्रकार आत्मा की सिद्धि होती है। विभिन्न दर्शनों में आत्म- अस्तित्व की सिद्धि . सांख्य दर्शन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि 'सांख्यकारिका में आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व के लिए पांच युक्तियाँ प्रस्तुत की गई है - (१) प्रकृति और उसके समस्त कार्य संघातरूप होने से १ न्याय - कुमुदचन्द्र ( आ. प्रभाचन्द्र) पृ. ३४९ .२ (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ६४९, (ख) षड्दर्शन समुच्चय टीका पृ. २२८ ३ स्याद्वाद - मंजरी का. १७. ४ (क) सत्य - शासन - परीक्षा पृ. १८ (ख) आचारांग १/४ (ग) गणधरवाद गा. १५७७ ५ धर्मादिकार्य सिद्धेश्च, तत्कर्ता चाऽपि सिद्धयति । कार्यं हि कर्तृ-सापेक्षं, तद्धर्मादि-सुखावहम् ॥ इत्यर्थापतः सिद्धः स आत्मा परलोकभाक् ॥ Jain Education International - स्याद्वादसिद्धि (वादीभसिंह) का. ९-१० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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