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कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४२७ कर कर्ज वसूल कर लेता है, उसी प्रकार जीव (सकर्मक आत्मा) में यदि धृति, उत्साह, पराक्रम आदि बल न हो तो कर्म उसे अपने अधीन कर लेता है। किन्तु जैसे ग्राम आदि में कर्जदार बलवान् होता है, उसी प्रकार जहाँ जीव धृति, बल, शरीर संहनन में सुदृढ़, उत्साही और पराक्रमी हो, वहाँ वह बलवान् होता है और कर्म को अपने अधीन कर लेता है।' कर्म का स्वभाव : परतंत्र बनाना, आत्मा का स्वभाव : स्वतंत्र होना
जो क्रिया करता है, उसकी प्रतिक्रिया निश्चित ही होती है। अतः क्रिया करने में मनुष्य स्वतंत्र है, किन्तु प्रतिक्रिया में वह परतंत्र है। एक जैनाचार्य ने कहा है-'कडेण मूढो पुणो तं करेइ'-एक बार जो कार्य किया जाता है, उससे साधारण अज्ञ, मानव को मोह उत्पन्न हो जाता है और मोहमूढ़ व्यक्ति पुनः पुनः उसी कार्य को करता है। पुनः पुनः उसी कार्य को दोहराने से एक संस्कार बन जाता है। फिर मनुष्य के मन में उक्त संस्कार के कारण उस क्रिया को बार-बार करने की ललक उठती है। व्यक्ति विवेकमूढ़ बनकर पुनः पुनः उस क्रिया को करता जाता है। इससे एक संस्कार बन जाता है जो कर्मरूप में उसके साथ बद्ध होकर कर्मानुसार मनचाहा नाच नचाता है। कर्म का स्वभाव है कि जो जीव उसकी गिरफ्त में आएगा, उसे वह अपने अधीन-परतंत्र बना लेता है।
यह तो हुई आत्मा की कर्म-परतंत्रता की बात। यदि आत्मा अपने मूलस्वरूप को अप्रमत्त होकर जान ले, मान ले तो उसकी चेतना-शक्ति अतीव प्रबल हो जाती है। अतः यदि वह प्रबलरूप से जागृत हो जाए और दृढ़संकल्पपूर्वक प्रतिज्ञाबद्ध हो जाए कि मुझे यह कार्य कतई नहीं करना है, तो फिर संस्कार या कर्म कितने ही प्रबल क्यों न हों, एक झटके में वह उन्हें तोड़ सकता है। कर्म करने में जीव स्वतंत्र, फल भोगने में परतंत्र .. इसलिए स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों सापेक्ष हैं, सर्वथा निरपेक्ष नहीं। जैसे-एक व्यक्ति भांग पी लेता है। वह भांग पीने में तो स्वतंत्र है। इच्छा हो तो पीए, इच्छा न हो तो न पीए। किन्तु उसके परिणामस्वरूप १. (क) कम्म चिणंति सवसा तस्सुदयम्मि उ परवसा होति।
रुक्खं दुरूहइ सवसो, विगलइ य परवसो तत्तो ।। धणिय-सरिसं तु कम्म, धारणिग-समा उ कम्मिणा होति। संतासंत धणा जह धारणिग धिइबल तणु ॥ कम्मवसा खलु जीवा, वसाई कहिं वि कम्माई।
कत्थइ धणिओ बलवं, धारणओ कत्थइ बलव ।। (ख) देखियं 'कर्मवाद' में इसका निरूपण पृ. ८७
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