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________________ कर्म का परतत्रीकारक स्वरूप ४१९ आनन्द एवं शक्ति का विकास इसीलिए होता है कि वह इस विषय में स्वतंत्र है। यदि आत्मा इस विषय में स्वतंत्र नहीं होता तो उसके चैतन्य एवं ज्ञानादि का विकास कभी नहीं हो सकता था। आत्मा के स्वतंत्र होने का अथवा आत्मा के स्वभाव के अविच्छिन्न रहने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उसका विकास होता है, और ज्ञानादि का विकास इसलिए होता है कि आत्मा इस विषय में स्वतंत्र है।' आत्मा का स्वभाव : विकास करना, कर्म का स्वभाव : अवरोध करना कर्म का स्वभाव ज्ञानादि आध्यात्मिक शक्तियों के विकास करने का नहीं है। उसका स्वभाव जीव के ज्ञानादि स्वभाव के विकास में अवरोध उत्पन्न करना, जीव के मूल स्वभाव को विकृत करना तथा ज्ञानादि गुणों को आवृत करना और जीव के ज्ञानादि आत्मगुणों के विकास को बाधित करके उसे परतंत्र बनाना है। कर्म जीव के चैतन्य, ज्ञान-दर्शन, आनन्द और आत्मशक्ति के विकासों को रोकता है, उनमें बाधा डालता है, उनमें अवरोध पैदा करता है। कोई भी पुद्गल, विशेषतः कर्म-पुद्गगल भी आत्मिक विकास-आत्मगुणों के विकास का मूल कारण नहीं बनता। कर्म जीव के निजी गुणों का विकास करने में बाधक बनता है, इसलिए आध्यात्मिक विकास के कर्तृत्व में वह जीव की स्वतंत्रता पर हावी हो जाता है। उसका स्वभाव ही जीव की स्वतंत्रता में बाधा डालना है, जीव को परतंत्र करना है, अथवा ऐसी स्थिति पैदा कर देना है, जिससे जीव उसके (कर्म के) अधीन (परतंत्र) हो जाए। ज्ञानादि स्वभाव आत्मा का उपादान होने से वह विकास कर पाता है कर्मों के उदय से बाधाएँ उपस्थित होती हैं, विकास करने की शक्ति कुण्ठित हो जाती है, फिर भी विकास इसलिए होता है कि जीव (आत्मा) की स्वतंत्र चैतन्यरूप सत्ता है, ज्ञानादि स्वभाव उसका उपादान है, वह कर्म से पृथक् है। ज्ञानादि पर्यायों की उत्पत्ति और विकास आत्मा ही कर सकती है, कर्म नहीं उपादान वह होता है, जो उस द्रव्य का घटक हो। जैसे-मिट्टी घड़े का उपादान है। उसमें घड़ा बनने की योग्यता है। कुम्भकार आदि दूसरे साधन सहायक या निमित्त बन सकते हैं, उपादान नहीं। घड़े के रूप में परिवर्तित होने वाली मिट्टी ही घड़े का उपादान हो सकती है, अन्य साधन नहीं। इसी प्रकार आत्मा के ज्ञानादि पर्यायों के विकास के लिए आत्मा ही १. देखें-कर्मवाद में इस सम्बन्ध में विवेचन पृ. ८७-८८ २. वही, पृ.८७-८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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